कुछ वर्षों से ऐसा लगने लगा है कि भारतीयों के मन की गहरी दरारें बढ़ती ही जा रही हैं। पहले तो कम, लेकिन अब खुलकर एक-दूसरे के प्रति घृणा का भाव दिखाई देने लगा है। ठीक है कि हमारे बीच खासकर अंग्रेजों ने जो दूरी बनाने की कोशिश की, उसमें वे सफल हुए। वैसे भी यदि गहराई से देखें तो हिंदू-मुसलमानों के बीच तो पहले से ही दूरी थी, क्योंकि मुगलों द्वारा बार-बार आक्रमण करके धन लूटा जाता था, वह सिर्फ एक लूट थी। वे लूटने ही आते थे और उनके मन में केवल भारत की अकूत धन-सम्पदा को लूटना था। वे इसी के लिए मारकाट करते थे और जब वे लूटने से थक गए, तो फिर इसी भारत को अपना देश बना लिया। तब हम भारतीय उस तरह से संगठित नहीं थे, जिस तरह आज हैं।

अगर दूसरे शब्दों में कहें तो इसी का लाभ विदेशी आक्रांता उठाते रहे और फिर अंत में वे समर्पित होकर भारत भूमि को ही अपनाकर उसी में खुद को समा लिया। हम भारतीय (हिंदू-मुसलमान) सभी दुश्मनियों को भूलकर पूर्णत: भारतीय हो चुके थे। लेकिन, राजनीतिज्ञों के लिए तो यह एक चाभी थी। उन्होंने जब चाहा, उसी चाभी से बीच-बीच में ताला खोलकर हिंदू-मुसलमानों को आपस में लड़ाते रहे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ने कहा है कि हमको अपने भीतर मुर्दा चीजों को नहीं पालना चाहिए, क्योंकि मुर्दा तो मुर्दापन लाने वाला ही होता है। लेकिन, हम गुरुदेव की बातों को हृदय से अंगीकार कहां कर पा रहे हैं?

तभी मोहनदास करमचंद गांधी का आना हुआ। गांधीजी ताजी हवा के उस प्रबल प्रवाह की तरह थे, जिन्होंने हमें पूरी तरह फैलने और गहरी सांस लेने के काबिल बनाया। वह रोशनी की उस किरण की तरह थे, जो अंधकार में पैठकर हमारी आंखों के सामने से पर्दा हटाया। चारों तरफ समाए डर के ही खिलाफ गांधीजी की शांत, किंतु दृढ़ आवाज उठी- ‘डरो मत’। क्या यह आसान बात थी? जहां एक तरफ उन्हें अपनी हिंदू विरासत का अभिमान था, वहीं उन्होंने हिंदू धर्म को सार्वलौकिक बाना पहनाने की कोशिश की और सत्य के घेरे में सब धर्मों में शामिल किया। अपनी सांस्कृतिक विरासत को संकरा करने से उन्होंने इनकार किया। उन्होंने लिखा है- ‘हिन्दुस्तानी संस्कृति न तो बिल्कुल हिंदू है और न बिल्कुल मुसलमानी।’

आगे वह कहते हैं- ‘मैं चाहता हूं मेरे घर में सब देशों की संस्कृति ज्यादा-से-ज्यादा आजादी के साथ फैले। लेकिन, उनमें से कोई भी मुझे बहा ले जाए, यह मैं नहीं चाहूंगा। दूसरे लोगों के मकानों में एक भिखारी या गुलाम या अनचाहा आदमी की तरह रहने को मैं तैयार नहीं हूं।’ पर, दुर्भाग्य हमारा आज हम हिंदुस्तानी उनके विरोध में कहते हैं कि गांधी-नेहरू के कारण ही देश का बंटवारा हुआ। मुसलमानों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कितना योगदान दिया, उसका उदाहरण वर्ष 1930 के दूसरे सविनय अवज्ञा आन्दोलन के सिलसिले में देखा जा सकता है। जिन लोगों को जेल भेजा गया, उनमें कम-से-कम दस हजार मुसलमान थे।

किस प्रकार यह सोच सकते हैं कि अब हम हिंदू राष्ट्र भारतवर्ष को बनाएंगे? यह राजनीतिज्ञों द्वारा जनता को गुमराह करने का नारा है और प्रश्न यह भी है कि आखिर हिंदू राष्ट्र क्यों? भारतीय संविधान जिन मूर्धण्य विद्वानों द्वारा तैयार किया गया, क्या आज के राजनीतिज्ञ उनसे अधिक दूरदर्शी हैं? जो आज इस नारे से देश की जनता को प्रलोभन देकर अपना वोट बैंक बनाना चाहते हैं? उन्होंने आजादी के दीवाने उन मुसलमानों के लिए सोचा, जिनका नाम इंडिया गेट दिल्ली और गेट वे ऑफ इंडिया मुंबई के ऊपर लिखा हुआ है? क्या ऐतिहासिक इन निशानों को गिराकर उन मुसलमान शहीदों के नाम मिटा दिए जाएंगे? वैसे, हिंदू विचारकों का मानना है कि लगभग एक हजार वर्ष की मुगलों की गुलामी से पहले भारतवर्ष हिंदू राष्ट्र था। लेकिन, क्या आज के परिवेश में यह संभव है कि भारत फिर से हजार वर्ष पीछे की स्थिति में आकर हिंदू राष्ट्र बन जाए? यह कैसे संभव हो सकता है? क्या हम भारत में रहने वाले 20 करोड़ मुसलमानों को देश से बाहर फेंक देंगे या उन्हें समुद्र में डुबो देंगे? क्या देश के पुनर्निर्माण में उनके योगदान को इतिहास से मिटा देंगे? क्या ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान का’ नारा देने वाले अल्लामा इकबाल, ‘भारत छोड़ो’ का नारा देने वाले यूसुफ मेहर अली, ‘जयहिंद’ का नारा देने वाले आबिद हसन सफरानी के नाम को इतिहास से मिटा देंगे? कई प्रश्न है, जिन्हें समझने के लिए हमें उनसे तर्क करने की जरूरत है। यदि ऐसे तथाकथित हिंदू राष्ट्रवादियों का मुंह बंद नहीं किया गया, तो फिर हमें गृहयुद्ध के लिए तैयार हो जाना चाहिए। लेकिन, हां देश अब समझ चुका है कि यह अब और अधिक दिन नहीं चलेगा। लोग समझने लगे हैं कि बेरोजगारी से ,गरीबी से, भुखमरी से ,मंदिर बनाने के कारण छुटकारा नहीं मिलेगा, युवाओं को रोजगार नहीं मिल जाएगा। इसलिए हिंदू राष्ट्र का स्वप्न दिखाना केवल मतदाताओं को गुमराह करने का एक जुमला ही है, और कुछ नहीं।

पता नहीं क्यों हमारे राजनीतिज्ञ पुनर्स्थापना से इतने विचलित रहते है। विश्व के कई देश तो इसी से बने हैं। आज विश्व का सबसे विकसित और संपन्न देश अमरीका पूरी तरह से पुनर्स्थापितों का ही देश है। भारत में यदि किसी रूप में मुसलमान आए, तो हम उन्हे अपने में क्यों नहीं समा पाए, यह बड़ा जटिल प्रश्न है। सच तो यह है कि समाज के हिंदू-मुसलमान किसी के मन में यह विचार नहीं आता, एक ही गांव एक ही मोहल्ले में वे साथ-साथ रहते हैं, किसी के मन में कभी कोई ऐसा विचार नहीं आता, लेकिन जब ये जुमलेबाज राजनीतिज्ञ हिंदू—मुसलमान का राग अलापने लगते हैं, तब समाज में उथलपुथल मचने लगती है। फिर वही समाज उसकावे में आकर दंगा-फसाद करने से नहीं चूकते। तब ऐसे राजनीतिज्ञों को दंगों पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का अवसर मिल जाता है। वे अपना वोट बैंक मजबूत कर लेते हैं। सच तो यह है कि ऐसा इसलिए हो पाता है, क्योंकि हमारा समाज अभी तक पूर्ण शिक्षित नहीं हो सका है। जिस दिन शिक्षा के मामले में हमारा भारत विश्व के दूसरे देशों की तरह हो जाएगा, ये सारी कमियां अपने आप दूर हो जाएंगी और फिर वह अमेरिका की तरह विकसित भी हो जाएगा। सच तो यह है कि भारत के लिए भी यही कहा जाता है कि यहां भी आर्य बाहर से ही तो आए। उद्देश्य होना चाहिए सबका देश, सबका विकास। आपस में लडने से किसी का भविष्य आगे नहीं बढ़ सकता। न ही देश विकसित होगा और न ही हम विकसित हो पाएंगे।

महात्मा गांधी पर यह आरोप उचित नहीं है कि उनके ही कारण भारत का बंटवारा हुआ और मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बना। सच तो यह है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने स्वयं एक वक्तव्य जारी कर कहा था कि अगर गांधी पाकिस्तान के बनाए जाने पर राजी हो जाएं, तो सारी समस्या मिनटों में सुलझ जाएगी, लेकिन गांधी हिंदुस्तान के विभाजन को एक ईश्वरद्रोह की तरह देखते थे। राजनीतिज्ञों को अब यह बात समझ में आ जाएगी कि देश को बांटकर हिंदू-मुस्लिम के नाम पर राजनीति करके अधिक दिनों तक वह शीर्ष पद पर आसीन नहीं हो सकेंगे, क्योंकि देश की जनता का कुछ प्रतिशत भाग अशिक्षित हो, लेकिन अनुभव से उसने सीख लिया है कि अब तक देश में उनके कारण जो आपसी मतभेद होता रहा, उसकी जड़ में राजनीतिक दुर्भावना से ग्रस्त देश के राजनीतिज्ञ ही रहे हैं। तो हो सकता है कि ऐसे राजनीतिज्ञों को सबक सिखाने के लिए वह कोई कठोर कदम न उठाना शुरू कर दें। लगभग यही तो अब जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहा है, वहां कुछ थोड़ी—बहुत यही स्थिति देखने को मिल रही है। जहां विभिन्न दलों के राजनीतिज्ञों को उनके गांव मोहल्ले में आने से मना कर दिया गया है, फिर भी यदि ऐसे लोग वहां पहुंच जाते हैं, तो फिर उन्हें भागकर बैरंग लौटना पड़ रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)