1970 और 80 के दशक में स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रहे कई नेता रिटायर हो रहे थे और राजनेताओं की एक नई पीढ़ी उभर रही थी। इनमें से कई अपने उत्थान के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। वह अपनी जातिगत पहचान से लेकर बाहुबल और धनबल तक का सहारा ले रहे थे। ये वही समय था, जब पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रतिद्वंद्वी ब्राह्मण और ठाकुर गुटों में बंटा हुआ था। समाज और सार्वजनिक जीवन पर इन दोनों गुटों का महत्वपूर्ण रूप से प्रभुत्व और ध्रुवीकरण देखा जा सकता था।

गोरखपुर क्षेत्र में गैंगस्टर से राजनेता बने दो लोग थे, जो यूपी की राजनीति को प्रभावित करने वाले इन बदलावों के केंद्र में थे। यूपी के पूर्व मंत्री हरिशंकर तिवारी, जिनका हाल ही में निधन हो गया। दूसरे थे- दो बार के विधायक वीरेंद्र प्रताप शाही, जिनकी साल 1997 में लखनऊ में हत्या कर दी गई थी। वे दोनों राजनीति में आने से पहले अपराधी माने जाते थे।

शुरुआती वर्षों में दोनों को अपनी-अपनी जाति के नेताओं का संरक्षण प्राप्त था। बाद में दोनों खुद स्थापित राजनेता बन गए। दोनों ग्रुप के बीच हुए गैंगवार में कई दर्जन लोग मारे गए। इन सब को देखते हुए तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को 1986 की शुरुआत में Uttar Pradesh Gangsters and Anti-Social Activities (Prevention) के लिए अध्यादेश लाना पड़ा।

इस कानून में संपत्ति की “कुर्की” का प्रावधान है। चाहे संपत्ति मालिकों के खिलाफ किसी भी अदालत द्वारा अपराध का संज्ञान लिया गया हो या नहीं, यदि जिला मजिस्ट्रेट के पास यह विश्वास करने का कारण है कि संपत्ति गैंगस्टर द्वारा अर्जित की गई है, तो एक्ट के तहत उसकी कुर्की की जा सकती है।

कौन किसके साथ था?

हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र प्रताप शाही ने सरकारी ठेकों को नियंत्रित करने के लिए गैंगवार शुरू किया, राजनेताओं की मदद की और उनकी मदद ली। और इस तरह अस्सी के दशक की शुरुआत में स्थापित राजनेता बन गए।

तत्कालीन सिंचाई मंत्री वीर बहादुर सिंह ने शाही का समर्थन किया। एक अन्य मंत्री श्रीपति मिश्रा और पूर्व सीएम कमलापति त्रिपाठी ने तिवारी का समर्थन किया। सिंह और मिश्रा दोनों ने बाद में यूपी के मुख्यमंत्री बने।

तिवारी और शाही ग्रुप एक दूसरे से यूपी के देवरिया, गोरखपुर, बस्ती, बलिया, आजमगढ़, गोंडा और बहराइच जैसे जिलों से लेकर राज्य की राजधानी लखनऊ तक, नेपाल की सीमा से लगे क्षेत्रों और यहां तक कि बिहार के कुछ हिस्सों तक में भिड़े। रविवार पत्रिका के लिए उस दौर में यूपी को कवर करने वाले पत्रकार संतोष भारतीय ने इस गैंगवार पर कई रिपोर्ट प्रकाशित की हैं, जो बताती हैं कि इसमें कई दर्जन लोग मारे गए थे।

द इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए भारतीय ने याद किया कि “ये दोनों (तिवारी और शाही) बहुत क्रूर अपराधी थे। गोरखपुर क्षेत्र के सभी राजनेताओं और ठेकेदारों को दो समूहों में विभाजित किया गया था। लगभग एक दशक तक दोनों के गिरोहों के बीच युद्ध हुआ। कुछ हद तक महंत अवैद्यनाथ भी शाही के साथ थे।”

राजनीति में एंट्री

भारतीय लिखते हैं कि अस्सी के दशक की शुरुआत में एक समय यूपी के कम से कम 30 विधायक तिवारी के हमदर्द थे जबकि लगभग 10 विधायक शाही के समर्थकों में थे। अपराध की दुनिया और सरकारी ठेकों पर अपनी पकड़ बनाने के बाद दोनों राजनीति में भी किस्मत आजमाने लगे। विधान परिषद के लिए एक बार असफल चुनाव लड़ने के बाद, तिवारी 1985 में पहली बार यूपी विधानसभा के लिए चिल्लूपार सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुने गए। इस दौरान वह जेल में थे। दूसरी ओर, 1974 में बस्ती सीट से हारने के बाद, शाही 1981 में महराजगंज जिले के लक्ष्मीपुर से एक उपचुनाव में निर्दलीय विधायक के रूप में चुने गए थे।

1989, 1991 और 1993 में तिवारी कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में जीते और 1996 में अपनी पार्टी अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत हासिल की है।

दूसरी तरफ शाही 1985 में भी लक्ष्मीपुर से जीते। 31 मार्च, 1997 को लखनऊ में श्रीप्रकाश शुक्ला ने शाही की हत्या कर दी थी। शुक्ला एक शार्प शूटर था। वह कभी तिवारी का बेहद करीबी हुआ करता था। शुक्ला 22 सितंबर, 1998 को गाजियाबाद में यूपी पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा गया था।

वीर बहादुर सिंह 24 सितंबर, 1985 को मुख्यमंत्री बने। वह भी गोरखपुर से थे, और कहा जाता है कि इस क्षेत्र में उनके प्रत्यक्ष अनुभव के कारण उनकी सरकार ने जनवरी 1986 में उत्तर प्रदेश गैंगस्टर्स एंड एंटी-सोशल एक्टिविटीज (रोकथाम) अध्यादेश को लागू किया। इसे बाद में विधानसभा और विधान परिषद द्वारा पारित किया गया था। यह कानून आज भी राज्य सरकार द्वारा व्यापक उपयोग में है।

उत्तर प्रदेश की राजनीति और अपराध

1989 में डीपी यादव बुलंदशहर से चुने गए और मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार में राज्य मंत्री के रूप में शपथ ली। 1991 में, मदन भैया खेकड़ा निर्वाचन क्षेत्र से एक निर्दलीय विधायक के रूप में चुने गए – वह भी तब जब वे दूर सीतापुर में जेल में थे। 1989 में, अतीक अहमद – जिन्हें उनके भाई अशरफ अहमद के साथ पिछले महीने प्रयागराज अस्पताल परिसर में लाइव टीवी पर पुलिस हिरासत में गोली मार दी गई थी – इलाहाबाद पश्चिम से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुने गए थे।

दरअसल, तब सभी पार्टियां अपराध और राजनीति की दुनिया में पैर रखने वाले दबंगों को टिकट दे रही थीं। हालांकि, 1991 में जब कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार सत्ता में आई, तो उसने ऐसे कई विधायकों को गिरफ्तार कर लिया। उनमें से कम से कम चार – हरिशंकर तिवारी, अतीक अहमद, मदन भैया और डीपी यादव – एक समय जेल में थे। हालांकि, बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद 6 दिसंबर, 1992 को कल्याण सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। राजनेताओं-अपराधियों की सांठगांठ को तोड़ने के उनके प्रयास के कारण उन्हें अधर में छोड़ दिया गया था।

ये बाहुबली-राजनेता, जो अपने जाति समूहों के साथ-साथ विभिन्न नेताओं के समर्थन के कारण खुद को स्थापित करने में सक्षम थे, बाद में गठबंधन की राजनीति की मजबूरी को भी भुनाया।

अक्टूबर 1997 में बसपा-भाजपा के सत्तारूढ़ गठबंधन के गिरने के बाद, कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को हरिशंकर तिवारी जैसे नेताओं की मदद से बचाया गया, जिन्हें विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री के रूप में सरकार में शामिल किया गया था। वह कपड़ा मंत्री के रूप में राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह सरकार में बने रहे। बाद में, उन्होंने मायावती और मुलायम सिंह सरकार के अधीन भी काम किया। 2007 में तिवारी बसपा के राजेश त्रिपाठी से हारे थे और 2012 के चुनाव में वे तीसरे स्थान पर खिसक गए थे।

अपराध की दुनिया से तो नेता आए लेकिन तिवारी दशकों तक इसका अहम चेहरा बने रहे। उनकी बेल्ट में, कई लोग अदालतों के पास जाने के बजाय “न्याय” के लिए उनसे मिलने जाना पसंद करते थे।