1971 का भारत-पाक युद्ध भारतीय सेना ने सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में जीता था। इस जीत से ही दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश का जन्म हुआ था। मानेकशॉ का पूरा नाम सैम होरमूज़जी फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था। उनका जन्म 3 अप्रैल, 1914 को अमृतसर के एक पारसी परिवार में हुआ था। शुरुआती पढ़ाई अमृतसर से हुई। आगे की पढ़ाई के लिए नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल लिया।

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मानेकशॉ इंडियन मिलिट्री एकेडमी देहरादून के पहले बैच के लिए चयनित 40 छात्रों में से एक थे। यहीं से कमीशन पाकर मानेकशॉ ब्रिटिश इंडियन आर्मी में शामिल हुए थे। इनका मिलिट्री करियर चार दशक का रहा। मानेकशॉ के कई किस्से मशहूर हैं। 1942 में सैम पहली बार तब चर्चा में आए थे, जब दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के मोर्चे पर एक जापानी सैनिक ने उनके शरीर में मशीनगन की सात गोलियां उतार दी थी।

मानेकशॉ के जीवनीकार मेजर जनरल वीके सिंह के हवाले से बीबीसी ने लिखा है कि उस वक्त आदेश था कि घायलों को उनकी जगह पर ही छोड़ दिया जाए। लेकिन मानेकशॉ के अर्दली सूबेदार शेर सिंह उन्हें अपने कंधों पर उठाकर लाए। हालांकि मानेकशॉ की हालत इतनी खराब थी कि डॉक्टर उनके इलाज को समय की बर्बादी समझ रहे थे। सूबेदार को डॉक्टर पर बंदूक तान कर इलाज करवाना पड़ा था। आंत, जिगर और गुर्दा में सात गोली लगने के बाद भी मानेकशॉ आश्चर्यजनक रूप से बच गए।

जब भारत आजाद हुआ तो मानेकशॉ भारतीय सेना में शामिल हुए और ‘सैम बहादुर’ के नाम से जाने गए। मानेकशॉ ने सन् 1969 में भारत के 8वें चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ का पद संभाला था। इसके दो साल बाद ही उन्हें 1971 में भारत-पाक युद्ध का नेतृत्व करने का मौका मिला। भारत न सिर्फ यह युद्ध जीता बल्कि पाकिस्तान के दो टुकड़े भी कर दिए। पाकिस्तानी सेना ने 16 दिसंबर 1971 को भारत के सामने बिना शर्त हथियार डाल दिया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पहली बार इतनी बड़ी तादाद में किसी सेना ने आत्मसमर्पण किया था। हथियार डालने वाले सैन्य अफसरों और जवानों की संख्या 93,000 से अधिक थी।

एक किस्सा 1971 के युद्ध के बाद का है। पाक के 93,000 सैनिक तो भारत ने लौटा दिए। लेकिन कुछ इलाकों की अदला बदली रह गयी थी। भारत चाहता था कि कश्मीर की चौकी थाकोचक से पाकिस्तान कब्जा छोड़ दे। इसी सिलसिले में बातचीत करने मानेकशॉ पाकिस्तान पहुंचे। तब पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल टिक्का थे, जो मानेकशॉ से आठ साल जूनियर थे। बीबीसी की एक रिपोर्ट में जनरल एसके सिन्हा के हवाले से बताया गया है कि टिक्का ख़ां की अंग्रेजी कमजोर थी। द्विपक्षीय वार्ता शुरू हुई। टिक्का खां ने पहले से तैयार किया गया वक्तव्य पढ़ना शुरू किया, “देयर आर थ्री ऑलटरनेटिव्स टू दिस।”

अपनी हाज़िरजवाबी के लिए मशहूर मानेकशॉ ने तुरंत टोकते हुए टिक्का खां को गलत अंग्रेजी की तरफ ध्यान दिलाया। उन्होंने बताया कि जिसने भी आपका ये ब्रीफ लिखा है उसे अंग्रेजी लिखनी नहीं आती। ऑल्टरनेटिव्स हमेशा दो होते हैं। तीन नहीं। हां संभावनाएं या पॉसिबिलिटीज़ दो से ज़्यादा हो सकती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, इसके बाद टिक्का खां हकलाने लगें और थोड़ी ही देर में थाकोचक वापस करने के लिए तैयार हो गए।

युद्ध के अगले ही बरस यानी 1972 में मानेकशॉ को देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था।  1973 में मानेकशॉ देश के पहले फील्ड मार्शल बनें। फील्ड मार्शल का रैंक भारतीय सेना का सर्वोच्च रैंक है। इस रैंक की खासियत यह है कि इसे पाने वाला व्यक्ति कभी रिटायर नहीं माना जाता। यानी मृत्यु तक एक सेवारत अधिकारी माना जाता है। हालांकि ये एक औपचारिक रैंक है, इस रैंक को पाने वाले अधिकारी का सेना के भीतर कोई कार्य नहीं होता है। उम्र ढलने पर मानेकशॉ फेफड़ा संबंधी रोग से ग्रस्त हो गएं। उनका निधन 27 जून, 2008 को तमिलनाडु के वेलिंगटन स्थित सैन्य अस्पताल में हुआ था।