न्यायपालिका में राजनीतिक विचारधारा के आधार पर नियुक्ति कोई नई बात नहीं है। अक्सर इस मसले पर न्यायपालिका और सरकार के बीच टकराव भी होता आया है। बॉम्बे हाईकोर्ट के एडवोकेट अभिनव चंद्रचूड़ अपनी किताब में ज्यूडिशियरी में जोड़तोड़ से नियुक्ति का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि 1970 के दशक से पहले न्यायिक नियुक्तियों में राजनीतिक विचारधारा कोई खास मायने नहीं रखती थी, लेकिन साल 1967 की एक घटना के बाद सब कुछ बदल गया।
फरवरी 1967 में सुप्रीम कोर्ट की 11 जजों की बेंच ने ‘गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार’ केस 6-5 के बहुमत से फैसला दिया कि मूलभूत अधिकारों में बदलाव के लिए संविधान में संशोधन का संसद को कोई अधिकार नहीं है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स केस में केंद्र सरकार को झटका दे चुका था।
गृह मंत्रालय की जगह कानून मंत्रालय को जिम्मा
अभिनव चंद्रचूड़ लिखते हैं कि इसी केस के बाद गृह मंत्रालय की जगह कानून मंत्रालय न्यायिक नियुक्तियों का काम देखने लगी। इंदिरा गांधी सरकार ने गोलकनाथ केस के जजमेंट को पलटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में धड़ाधड़ अपनी पसंद के जजों को नियुक्त करने लगी। उस वक्त इंदिरा गांधी सरकार में एस. मोहन कुमारमंगलम कैबिनेट मंत्री हुआ करते थे। मद्रास के एडवोकेट जनरल रहे कुमारमंगलम ने गोलकनाथ केस में हारने वाले पक्ष की तरफ से पैरवी की थी। बाद में कुमारमंगलम ने खुलेआम इस बात की वकालत की थी कि सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए जज की विचारधारा भी देखी जानी चाहिए।
कांग्रेस ने शुरू किया बैकग्राउंड चेक
एक तरीके से गोलकनाथ केस के बाद ही कांग्रेस सरकार न्यायिक नियुक्तियों में इस बात को खासतौर से चेक करने लगी कि कहीं कोई कैंडिडेट किसी भी तरह विपक्षी पार्टी से तो नहीं जुड़ा है या समर्थन में कोई बयान तो नहीं दिया है या कभी कांग्रेस के विरुद्ध कोई बात तो नहीं कही है। अभिनव चंद्रचूड़ पूर्व कानून मंत्री अशोक सेन के हवाले से लिखते हैं कि साल 1984 से 1987 के उनके कार्यकाल में एक भी ऐसे जज की नियुक्ति नहीं हुए जो एंटी कांग्रेस था।
CJI चंद्रचूड़ ने क्या कहा था?
पूर्व चीफ जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ भी इस बात की तस्दीक करते हैं। अभिनव लिखते हैं कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि सरकार हमेशा ऐसे कैंडिडेट को तलाशती थी जो मौका पड़ने पर उसे समर्थन दें या उसके पक्ष में खड़े हों। किसी भी कैंडिडेट को अप्वॉइंट करने से पहले सरकार उसके पुराने फैसलों को को देखती थी, बैकग्राउंड चेक करती थी।
खासतौर से यह चेक करती थी कि वह कहीं किसी विपक्षी पार्टी के कार्यक्रम में तो शामिल नहीं हुआ है, खासकर आरएसएस के। इसके बाद सरकार को जो कैंडिडेट अपने विचारधारा के खिलाफ लगता था उसे रिजेक्ट कर देती थी।