निर्बल को बल देना तो हमें बचपन से ही सिखाया जाता है और उसके उदाहरण के रूप में यह भी बताया जाता है कि जब तक जमीन समतल नहीं होगी, फसल कभी एक जैसी नहीं हो सकती। इसलिए चारों कोने को बराबर करना होगा, ताकि पानी सभी भागों में सामान्य रूप से पहुंच सके और फसल एक जैसी हो सके। यही तो हमारे संविधान निर्माताओं ने सोचा था और इसलिए समाज के पिछड़े वर्गों को सामान्य लोगों की बराबरी पर लाने के लिए आरक्षण को अधिकार के रूप में मान्यता दिया। उन्होंने केंद्र और राज्य की सरकारी नौकरियां, कल्याणकारी योजनाओं और शिक्षा के क्षेत्र में हर वर्ग की हिस्सेदारी सुनिश्चित की थी।

फिर जनता पार्टी की सरकार ने 1979 में आरक्षण की समीक्षा करने आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी मण्डल बनाए गए। मण्डल आयोग ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपते हुए कहा कि ओबीसी को सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी नौकरियों में 27 प्रतशित आरक्षण दिया जाना चाहिए। उन्हें सार्वजनिक सेवाओं के सभी स्तरों पर पदोन्नति में समान 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए। आरक्षित कोटा, यदि पूरा नहीं किया गया है, तो तीन वर्ष के लिए आगे बढ़ाया जाना चाहिए।

अब प्रश्न यह है कि क्या देश के नीति निर्माताओं ने जो सपना देखा था, क्या वह आजादी के 75 वर्ष बाद भी पूरे नहीं हुए? सनातन धर्म विवाद की जड़ में देखें, तो यही बात है, क्योंकि सामाजिक असमानता तो अब भी वहीं है। हां, आजादी के बाद से अब तक यही तो हुआ कि जो गरीब थे, वे और गरीब होते गए और जो अमीर थे, वे अमीर होते चले गए। इसका परिणाम यह हुआ कि जगह—जगह देश में कभी आर्थिक विषमता के कारण, तो कभी धर्म के नाम पर विवाद होना शुरू हो गया। कभी जाति के नाम पर हम आपस में उलझते रहे।

दक्षिण भारत के द्रविड़ और उत्तर भारत के कई पिछड़े नेताओं ने सनातन धर्म पर ही अपना ठीकरा फोड़ा और कहा कि धर्म और ब्राह्मणवाद के कारण पिछड़ा वर्ग आगे नहीं बढ़ पाया है और यही सामाजिक विषमता का मूल कारण है। इसलिए हिंदू ग्रंथों के साथ ब्राह्मणों को इसके लिए उत्तरदायी माना गया और फिर उनका विरोध शुरू हो गया।

अब यह विवाद फिर उठ खड़ा हुआ है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के बेटे दयानिधि स्टालिन ने सनातन धर्म को डेंगू, मलेरिया और कोरोना कहते हुए उसके समूल उन्मूलन करने की बात अपने भाषण में कहकर पूरे देश में भूचाल ला दिया। भारत में गरीबों की संख्या पर विभिन्न अनुमान हैं। आधिकारिक आंकड़ों की मानें, तो भारत की 37 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जो आज भी समाज से उपेक्षित है।

आजादी के 75 वर्ष बाद भी हमारी जमीन समतल नहीं हुई और इसलिए देश में चारों ओर असमानता और उथलापन दिखाई देता है। अभी पिछले सप्ताह महिला आरक्षण विधेयक बिल पारित होते समय कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने संसद में यही तो कहकर चिंता व्यक्त थी कि हिंदुस्तान की नीति— निर्माता सचिवों की कुल संख्या 90 है, जिनमें केवल तीन ओबीसी से आते हैं। ऐसी स्थिति में हम समानता लाने की बात कैसे कर सकते हैं?

जब सरकार की आंखों के सामने देश की यह स्थिति है फिर दूर-दराज की क्या स्थिति होगी। इस पर सत्तारूढ़ दल के सांसदों ने कहा कि कांग्रेस के जितने सांसद लोकसभा में हैं, उससे कहीं अधिक उनकी पार्टी के ओबीसी सांसद इस सदन में उपस्थित हैं। जो भी हो, लेकिन यह मुद्दा बहुत ही गंभीर है और देश के विकास और समानता की राह को अवरुद्ध करता है। यह स्थिति तब है, जब चुनाव में उनके ही वोट से जीतकर वे संसद या विधानसभा में पहुंच पाते हैं।

वैसे, इन नीति— निर्माताओं को इस बात की जानकारी होती है कि यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो गया, तो उन जैसे जुमलेबाजों को अपना मतदान कौन करेगा? सीधी बात है, सब जानते हुए भी अपने को ऊपर दिखाने के लिए और समाज का शोषण करने के लिए नीति निर्माण करने वाले उन्हें भ्रम में रखकर अपना हित साधते रहते हैं। जिस दिन समाज के जागरूक लोग राजनीतिज्ञों की जुमलेबाजी को समझ लेंगे, देश के विकास में आमूल परिवर्तन स्वत: आने लगेगा।

वैसे, आरक्षण का यह विषय बहुत ही उलझ गया है, क्योंकि केंद्र तथा राज्य सरकारों में उस प्रकार का तालमेल नहीं है जिसकी कल्पना भारतीय संविधान विशेषज्ञों ने की थी। भारतीय संविधान में ओबीसी सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्णित किया जाता है, और भारत सरकार उनके सामाजिक और शैक्षिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए हैं।

उदाहरण के लिए, ओबीसी सार्वजनिक क्षेत्र के रोजगार और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में 27 प्रतिशत आरक्षण के हकदार हैं। दिसंबर 2018 में ओबीसी उप-जातियों के उप-वर्गीकरण के लिए आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, अन्य पिछड़ा वर्गों और ओबीसी के रूप में वर्गीकृत सभी उप-जातियों के 25 फीसदी जातियां ही ओबीसी आरक्षण का 97 प्रतिशत फायदा उठा रही हैं, जबकि कुल ओबीसी जातियों में से 37 प्रतिशत में शून्य प्रतिनिधित्व है।

चाहे कितनी ही दुश्वारियां सामने आए, लेकिन देश में जब तक सामान्य रूप से बढ़ने का अवसर सभी को नहीं मिलेगा, तो फिर समानता कैसे आएगी और देश का विकास कैसे होगा? अब यह जाति के आधार पर हो, चाहे आर्थिक आधार पर… इसका निराकरण तो करना ही होगा। ऐसा इसलिए कि जब तक जमीन समतल नहीं होगी, विकास का पानी सभी जगह सामान्य रूप से नहीं पहुंच पाएगा फिर असामानता तो बनी ही रहेगी।

अभी तो समाज के हर वर्ग में असमानता है ही, फिर चाहे निशाने पर रहने वाले ब्राह्मण हों, क्षत्रिय हों, वैश्य हों या समाज के अन्य वर्ग। आर्थिक रूप से कमजोर तो हर वर्ग, हर जाति और समुदाय में है, इसलिए उनके विषय में भी हमारे संवैधानिक शीर्ष पर बैठे राष्ट्र निर्माताओं को व‍िचार करना ही होगा, अन्यथा देश का एक कोना दूसरे कोनों से उलझता रहेगा और अपने अपने कुतर्कों से देश को भ्रमित करता रहेगा।

Nishikant Thakur Blog

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)