बिहार विधानसभा चुनाव की हलचल चरम पर है। हर ओर एक ही सवाल गूंज रहा है – इस बार मुख्यमंत्री की कुर्सी किसके पास जाएगी? लेकिन इस चुनावी शोर के बीच यह जानना भी जरूरी है कि बिहार के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने वाले नेताओं ने अपनी राह में क्या संघर्ष और घटनाएं झेली। इसी कड़ी में आज हम बात करेंगे बिहार के तीसरे मुख्यमंत्री पंडित बिनोदानंद झा की, जिनकी राजनीतिक यात्रा साहस, संघर्ष और सत्ता की जटिलताओं से भरी रही।

बिनोदानंद झा का जन्म 17 अप्रैल 1900 को देवघर जिले में हुआ। पढ़ाई-लिखाई में तेज और विचारों में निडर, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के सेंट्रल कलकत्ता कॉलेज से शिक्षा हासिल की। स्वतंत्रता संग्राम में झा सक्रिय रहे और कई बार जेल गए। 1922, 1930, 1940 और 1942 के आंदोलनों में लंबी अवधि जेल में रहने के दौरान उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों की कई चुनौतीपूर्ण कोशिशों का सामना किया। एक बार दुमका जेल में नशे में धुत्त कमिश्नर आरचर ने उन्हें जान से मारने की कोशिश की, लेकिन सिपाहियों और कानूनी मजबूरी के कारण वह सुरक्षित रहे। इन अनुभवों ने उनके साहस और निडरता को और मजबूत किया।

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स्वतंत्रता के बाद झा बिहार की राजनीति में सक्रिय हुए। 1948 में वे बिहार से संविधान सभा के सदस्य बने। फरवरी 1961 में वे बिहार के तीसरे मुख्यमंत्री बने और लगभग 2 साल 8 महीने तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहे, यानी 2 अक्टूबर 1963 तक। उनका मुख्यमंत्री बनना सिर्फ सत्ता तक पहुंचने की कहानी नहीं था; यह उस समय के राजनीतिक संतुलन और सिद्धांतों की कसौटी का परिणाम था। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने प्रशासनिक कामकाज को सुव्यवस्थित करने की कोशिश की और पार्टी के भीतर संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई।

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विनोदानंद झा का राजनीतिक करियर लोकसभा में भी रहा। 1971 में उन्होंने दरभंगा निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ा और भारतीय जनसंघ के सुरेंद्र झा ‘सुमन’ को हराकर पहली बार संसद में प्रवेश किया। लेकिन 1 अगस्त 1971 को घुटने के इलाज के लिए वेल्लोर जाते समय उनका निधन हो गया। उनका राजनीतिक जीवन कठिन संघर्ष और साहस की मिसाल रहा।

जेल में बिताए वर्षों और सत्ता संघर्ष ने झा को मजबूत और अनुभवसंपन्न बनाया। मछली कांड और कामराज योजना जैसी घटनाओं ने उनके राजनीतिक जीवन में उथल-पुथल तो मचाई, लेकिन उन्होंने हमेशा जनता और सिद्धांत के हित को सर्वोपरि रखा। उनका जीवन आज भी दिखाता है कि राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि साहस, सोच और संघर्ष की कहानी भी है।

क्या था मछली कांड? खुफिया विभाग एक्टिव न होता तो चली जाती सीएम की जान

1963 का मछली कांड बिहार की राजनीति के इतिहास में सबसे अजीब और विवादित घटनाओं में से एक था। उस समय मुख्यमंत्री पंडित बिनोदानंद झा खाने के शौकीन थे और उन्हें पटना के राज होटल से मछली मंगाई गई। जैसे ही मछली उनके पास पहुंची, उन्हें सूचना मिली कि उसमें जहर मिलाया गया है। मामले की जांच की गई तो पता चला कि यह हत्या की साजिश उनके ही दल के कुछ नेताओं और कैबिनेट मंत्री केबी सहाय के करीबी सहयोगियों ने रची थी। झा ने तुरंत प्रधानमंत्री नेहरू को शिकायत भेजी और खुफिया विभाग ने पूरी जांच कर मोटी फाइल प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपी। इस मामले में रामलखन सिंह यादव मुख्य आरोपी बने। मछली कांड ने केवल झा की सुरक्षा के सवाल को नहीं बल्कि कांग्रेस के अंदरूनी गुटबंदी और सत्ता संघर्ष की हकीकत को भी उजागर किया।

क्या थी कामराज योजना? कई मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को देना पड़ा था इस्तीफा

कामराज योजना दक्षिण भारत के पूर्व मुख्यमंत्री के. कामराज की राजनीतिक सोच का नतीजा थी। 1963 में कामराज ने महसूस किया कि कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता लंबे समय से पद पर रहने के कारण संगठन में नई ऊर्जा और नेतृत्व की संभावनाओं को कमजोर कर रहे हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि वरिष्ठ नेता सरकार छोड़कर संगठन में लौटें ताकि पार्टी को नई दिशा मिल सके।

इस योजना के तहत लगभग आधा दर्जन केंद्रीय मंत्री और उतने ही मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफा दिया। झा भी इस सूची में शामिल थे और 2 अक्टूबर 1963 को उनका मुख्यमंत्री पद समाप्त हो गया। अखबारों ने इसे ‘कामराज्ड’ कहकर रिपोर्ट किया। योजना का उद्देश्य केवल सरकार बदलना नहीं बल्कि कांग्रेस को नई दिशा और ताकत देना था। इस कदम के कारण नेहरू को भी अपनी नई टीम बनाने का अवसर मिला और केंद्र की राजनीति में बड़े बदलाव आए।