बिहार की राजनीति में कई कहानियां हैं – सत्ता की, संघर्ष की और समझौते की। लेकिन कुछ किस्से ऐसे भी हैं जो पांच दिन में ही इतिहास बन जाते हैं। सतीश प्रसाद सिंह की कहानी भी वैसी ही है – एक जमींदार का बेटा जिसने प्यार के लिए परिवार छोड़ा, जमीन बेचकर चुनाव लड़ा, दो बार हारा, तीसरी बार जीता और फिर महज पांच दिन के लिए बिहार का मुख्यमंत्री बना। मगर इतने कम वक्त में भी उन्होंने जो किया, उसने उन्हें इतिहास के पन्नों में अमर कर दिया। 1968 का वह दौर बिहार की राजनीति में उथल-पुथल का था। कांग्रेस का किला डगमगा चुका था और सत्ता नए गठजोड़ों के बीच झूल रही थी।

28 जनवरी को शपथ ली, 1 फरवरी को इस्तीफा

इसी बीच तीन जातियों – कुशवाहा, यादव और कुर्मी – के बीच सत्ता-साझेदारी का फॉर्मूला बना। तय हुआ कि पहले कुशवाहा नेता सतीश प्रसाद सिंह, फिर यादव नेता बी.पी. मंडल और उसके बाद कुर्मी नेता भोला प्रसाद सिंह को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। 28 जनवरी 1968 को सिंह ने शपथ ली और बिहार को मिला उसका पहला ओबीसी मुख्यमंत्री। मगर राजनीति के समीकरण बदलने में वक्त नहीं लगा – और गांधी जी की पुण्यतिथि के दो दिन बाद, 1 फरवरी 1968, उन्होंने स्वेच्छा से इस्तीफा दे दिया। सतीश प्रसाद सिंह का कार्यकाल भले ही पांच दिन का रहा, लेकिन उनकी कहानी पांच दशक तक सुनाई जाती रही – क्योंकि उन्होंने साबित किया कि सत्ता का असली मतलब कुर्सी नहीं, संघर्ष है।

यह कहानी शुरू होती है मुंगेर के डीजे कॉलेज से। पचास के दशक का समय था। कुरचक्का गांव के जमींदार परिवार से आने वाले सतीश प्रसाद सिंह पढ़ने के लिए पटना आए थे। उनके घर में 400 बीघा खेत, बटाईदार, ओहदा और रुतबा सब कुछ था। मगर कॉलेज में मुलाकात हुई ज्ञानकला से — वैश्य समाज की लड़की, और यहीं से शुरू हुआ वो प्रेम जिसने सतीश की पूरी जिंदगी बदल दी। उस दौर में जाति के बंधन इतने कठोर थे कि इस रिश्ते को स्वीकारना लगभग असंभव था। जब सतीश ने घर में शादी की बात रखी, तो परिवार ने ऐलान कर दिया — “या तो जात, या घर।” सतीश ने जात की दीवार तोड़ दी और साथ ही घर से रिश्ता भी। खेती का जो हिस्सा मिला, उसी में उन्होंने गुजारा शुरू किया। बाकी सब कुछ छिन गया। लोग उन्हें “कुलअंगार” कहने लगे, लेकिन उन्होंने परवाह नहीं की। वे ठान चुके थे कि अब नाम “कुल” से नहीं, “कर्म” से बनेगा।

बहुमत कांग्रेस का, सत्ता विपक्ष की – बिहार के पांचवें सीएम, इकलौते विधायक महामाया प्रसाद सिन्हा बने सियासत के नए नायक

राजनीति में उनकी दिलचस्पी पहले से थी। 1962 में पहली बार स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा, मगर हार गए। फिर जमीन बेची, 1964 के उपचुनाव में उतरे, फिर हार गए। लोग हंसे — “अब तो खेत खत्म, उम्मीद भी खत्म।” लेकिन सतीश की जिद खत्म नहीं हुई। उन्होंने तीसरी बार कोशिश की। 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा। इस बार भी जमीन बिकी, लेकिन राजनीतिक जमीन बच गई। वे पहली बार विधायक बने — और यहीं से बिहार की सियासत में एक नया अध्याय शुरू हुआ।

1967 के चुनावों के बाद बिहार की राजनीति में उथल-पुथल मच गई। कांग्रेस के पास बहुमत था, लेकिन सत्ता विपक्ष के हाथों में चली गई। महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी सरकार ज्यादा दिन नहीं टिक सकी। पार्टी के भीतर असंतोष और बाहरी जोड़-तोड़ ने समीकरण बदल दिए। इसी दौरान सतीश प्रसाद सिंह ने बी.पी. मंडल और भोला प्रसाद सिंह जैसे नेताओं के साथ मिलकर शोषित दल बनाया। कांग्रेस ने भी सत्ता में वापसी के लिए इस बगावत को हवा दी। तय हुआ कि पिछड़ा वर्ग के तीन नेताओं को बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनाया जाएगा — पहले सतीश प्रसाद सिंह (कुशवाहा), बी.पी. मण्डल (यादव) या फिर भोला प्रसाद सिंह (कुर्मी) राज्य के मुखिया बनेंगे।

मुख्यमंत्री: बिहार के पहले सीएम श्री कृष्ण सिंह, जिनकी चिट्ठी पर जवाहरलाल नेहरू ने राज्यपाल को हटा दिया

28 जनवरी 1968 को बिहार को मिला उसका पहला मुख्यमंत्री — सतीश प्रसाद सिंह। उन्होंने शपथ ली, सरकार बनी, लेकिन पांच दिन बाद 1 फरवरी को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। महज पांच दिन का कार्यकाल — लेकिन इतनी छोटी अवधि में भी उन्होंने ऐसी छाप छोड़ी जो इतिहास में दर्ज हो गई। उनकी पहली कैबिनेट में सिर्फ दो मंत्री थे — शत्रुमर्दन शाही और एन.ई. होरो। उनका पहला निर्णय था बी.पी. मंडल को विधान परिषद में भेजने की सिफारिश। दरअसल, वे जानते थे कि अब बारी मंडल की है। और पाँच दिन बाद ही स्वेच्छा से मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

इसके बाद उनका राजनीतिक सफर उतार-चढ़ाव भरा रहा। वे कभी सांसद बने, कभी चुनाव हारे, और एक दौर ऐसा भी आया जब उन्होंने राजनीति से अलग रास्ता अपनाया। उन्होंने फिल्म बनाने की ठानी — ‘जोगी और जवानी’ नाम की फिल्म बनाई, जो कभी रिलीज नहीं हुई, लेकिन उनके साहस और प्रयोगशीलता का प्रमाण बन गई।

मुख्यमंत्री: स्वराज फंड के लिए बैलगाड़ी से जुटाए थे 1 लाख रुपये, महज 17 दिनों का था बिहार के दूसरे सीएम का कार्यकाल

सतीश प्रसाद सिंह की निजी जिंदगी भी उतनी ही रोचक रही जितनी उनकी राजनीति। उन्होंने अपनी बेटी सुचित्रा की शादी अपने पुराने साथी नेता जगदेव प्रसाद कुशवाहा के बेटे नागमणि से की। नागमणि खुद भी बाद में बिहार की राजनीति में चर्चित चेहरा बने — कई बार पार्टी बदली, कई बार मंत्री बने, और अपने पिता की तरह सियासी बयानबाजी के लिए मशहूर रहे। जगदेव प्रसाद के बेटे और सतीश प्रसाद सिंह के दामाद नागमणि इस समय भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं।

तीन नवंबर 2020 को दिल्ली में कोविड संक्रमण से सतीश प्रसाद सिंह का निधन हो गया। लेकिन उनकी कहानी आज भी बिहार की सियासत के इतिहास में एक अनोखे अध्याय की तरह दर्ज है — एक जमींदार का बेटा, जिसने जातिगत बंधनों से बगावत की, जमीन बेचकर चुनाव लड़ा, दो बार हारा, तीसरी बार जीता और सिर्फ पांच दिन की सत्ता से अमर हो गया। यह कहानी सिर्फ एक मुख्यमंत्री की नहीं, बल्कि उस जिद, उस जज़्बे और उस दौर की है जब राजनीति में विचार, वैचारिकता और वैमनस्य सब एक साथ खौल रहे थे।