बिहार की राजनीति में सत्ता के समीकरण कई बार ऐसे बदले कि इतिहास खुद अचरज में पड़ गया। 1967 का साल भी कुछ ऐसा ही था — जब कांग्रेस के पास पूर्ण बहुमत था, मगर सियासी बिसात ऐसी बिछी कि सरकार विपक्ष की बन गई। मुख्यमंत्री की कुर्सी उस नेता को मिली, जिनकी अपनी पार्टी में वह अकेले विधायक थे — महामाया प्रसाद सिन्हा। यह वही दौर था जब जनता बदलाव के मूड में थी, कांग्रेस की पकड़ ढीली पड़ रही थी और राजनीति में सिद्धांत बनाम सत्ता की लड़ाई पूरे उफान पर थी।
महामाया प्रसाद सिन्हा (Mahamaya Prasad Sinha) का उदय इस दौर की सबसे दिलचस्प कहानी है — एक ईमानदार, सख्त और सिद्धांतनिष्ठ नेता, जिसने न सिर्फ सत्ता की राजनीति को चुनौती दी, बल्कि बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार की नींव रखी। वह दौर जब विचार, वैचारिकता और वैमनस्य — तीनों साथ-साथ चल रहे थे, और सिन्हा उन सबके बीच अपनी सादगी और ईमानदारी से अलग पहचान बना रहे थे। यह कहानी है उस मुख्यमंत्री की, जिसने परंपराओं को तोड़कर राजनीति को नई दिशा दी और दिखाया कि सत्ता केवल संख्याओं का खेल नहीं, विश्वास और विचारों का समीकरण भी होता है।
महामाया प्रसाद सिन्हा का जन्म 1 मई 1909 को सिवान जिले के महाराजगंज के पटेढ़ी गांव में हुआ था। पिता चाहते थे कि बेटा आईसीएस (उस समय आज की सिविल सर्विस परीक्षा के आईएएस को आईसीएस कहा जाता था) बने, और 1929 में उन्हें इसका अवसर भी मिला, लेकिन उस वक्त युवा महामाया गांधी के विचारों से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने ब्रिटिश शासन की नौकरी को ठोकर मार दी। उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया और जेल भी गए। यहीं से उनकी राजनीतिक यात्रा शुरू हुई, जो आगे चलकर उन्हें बिहार के पांचवें मुख्यमंत्री बनने का अवसर दिला दी।
वे शिक्षा में तेज, वक्तृत्व में धारदार और व्यक्तित्व में दृढ़ थे। 1967 में पटना पश्चिम विधानसभा सीट से उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री के.बी. सहाय को हराकर सबको चौंका दिया। यह वही चुनाव था जिसने बिहार के सत्ता समीकरण को बदलकर रख दिया।
कांग्रेस खुद अपनी सरकार नहीं बना सकी
1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी तो रही — 128 सीटों के साथ — लेकिन आंतरिक कलह ने पार्टी को सरकार बनाने से रोक दिया। महेश प्रसाद को नेता चुनने पर 32 विधायकों ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस, बहुमत में होते हुए भी, सरकार नहीं बना पाई। ऐसे में विपक्षी दलों — सोशलिस्ट, जनसंघ, कम्युनिस्ट, प्रजा सोशलिस्ट और अन्य – ने मिलकर “संविद” (संयुक्त विधायक दल) का गठन किया। मुख्यमंत्री के लिए कई नाम उछले, पर अंत में वही व्यक्ति चुना गया जिसने सत्ता के दिग्गज को हराया था – महामाया प्रसाद सिन्हा। वे कृषक मजदूर प्रजा पार्टी के इकलौते विधायक थे, फिर भी मुख्यमंत्री बने। उनके साथ उपमुख्यमंत्री बने कर्पूरी ठाकुर। यह गठबंधन 33 सूत्री साझा कार्यक्रम पर आधारित था, लेकिन विचारधारा की खाई इतनी गहरी थी कि यह सरकार ज्यादा दिन टिक नहीं सकी।
उर्दू विवाद और रांची दंगे से हिल गई सरकार
महामाया सरकार ने कार्यकाल के दौरान कई ऐतिहासिक फैसले लिए, लेकिन एक घोषणा ने सब कुछ बदल दिया। 17 मार्च 1967 को विधानमंडल के सत्र में राज्यपाल एम.ए. अय्यंगर ने सरकार की ओर से कहा – सभी सरकारी कामकाज हिंदी में होंगे और उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिया जाएगा। बस, यहीं से विवाद शुरू हो गया। जनसंघ और हिंदी साहित्य परिषद ने इसका विरोध किया, जबकि वाम दल और समाजवादी इसके समर्थन में उतर आए।
स्थिति इतनी बिगड़ी कि विधानसभा में कांग्रेस विधायक नसीरुद्दीन हसन खां ने उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा बनाने के लिए निजी विधेयक पेश कर दिया। इससे सत्ता की नाव हिलने लगी। विरोध-समर्थन के बीच बिहार धधक उठा। 22 अगस्त 1967 को रांची में उर्दू विरोधी जुलूस पर पथराव हुआ और हिंसा भड़क गई। जस्टिस रघुवर दयाल जांच आयोग के मुताबिक 184 लोगों की मौत हुई। इतनी बड़ी जनहानि ने सरकार की जड़ें हिला दीं। गठबंधन के दल एक-दूसरे पर आरोप लगाने लगे। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और अविश्वास के बीच, 329 दिन बाद बिहार की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार गिर गई।
‘कुर्ता फाड़ने वाले मुख्यमंत्री’ और राजेंद्र बाबू की तारीफ
महामाया प्रसाद सिर्फ सख्त प्रशासक नहीं, बल्कि जनता के साथ खड़े होने वाले नेता थे। वरिष्ठ पत्रकार कैलाश कश्यप बताते हैं कि जब छात्रों पर परिवहन कर्मियों ने हमला किया था, तो महामाया खुद सड़कों पर उतर आए और विरोध में अपना कुर्ता तक फाड़ दिया। यह उनका प्रतीकात्मक विरोध था — सत्ता में रहकर भी जनता के साथ खड़ा रहने का।
उनकी ईमानदारी और जनसमर्पण ने उन्हें डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे नेताओं का सम्मान दिलाया। प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू उन्हें “प्रखर वक्ता और बिहार के सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ताओं में से एक” मानते थे। 1977 में वे जनता पार्टी से पटना से सांसद बने और 12 फरवरी 1987 को उनका निधन हुआ।
महामाया प्रसाद सिन्हा का मुख्यमंत्री बनना बिहार के राजनीतिक इतिहास का एक अपवाद था — एक ऐसा उदाहरण जो दोबारा नहीं दोहराया गया। अकेले विधायक होकर मुख्यमंत्री बनना, बिना किसी बड़े दल के समर्थन के, फिर भी वैचारिक गठबंधन को चलाना — यह उनके नेतृत्व और व्यक्तित्व की ताकत थी। भले ही उनकी सरकार एक साल भी नहीं चली, लेकिन उन्होंने जो शुरुआत की, उसने बिहार की राजनीति को नई दिशा दी — जहां सत्ता सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि सिद्धांत और साहस से तय होती है।