दीपक रस्तोगी

अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी ने पूरे विश्व को हिला रखा है। चीन, पाकिस्तान, रूस और ईरान- ये चार देश अभी तालिबान के पक्ष में दिख रहे हैं। और इस कट्टरपंथी संगठन के शासन को मान्यता देने की वकालत कर रहे हैं, लेकिन वे भी फूंक-फूंक कर कदम उठा रहे हैं। तालिबान के नेता अब खुलकर कह रहे हैं कि अफगानिस्तान में शरिया शासन व्यवस्था लागू की जाएगी। वहां अफरा-तफरी है और लोग पलायन कर रहे हैं। शरणार्थी समस्या बढ़ रही है, जिसका सीधा असर भारत समेत अफगानिस्तान के कई पड़ोसी मुल्कों पर दिख रहा है। तालिबानी शासन व्यवस्था में किस तरह के संबंध अफगानिस्तान के साथ रखे जाएं- इस सवाल पर दुनिया भर के राजनयिक मंथन में जुटे हैं। मानवता के लिए संकट और इस सवाल के इर्द-गिर्द मंडरा रही चुनौतियां मुंह बाए सामने खड़ी हैं।

क्या हैं मौजूदा हालात

अफगानिस्तान से जिस तरह अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटो की सेनाएं अचानक हटीं और वहां पूरे देश में अचानक अराजकता फैल गई, उससे कई देशों के आपसी कूटनीतिक संबंधों पर भी असर पड़ा है। कूटनीतिक संबंधों अचानक ही झटका लगा है। वहां के घटनाक्रम के बाद विश्व पटल पर तीन देशों के नए गठबंधन का उदय हुआ है, जिसमें चीन, रूस और पाकिस्तान शामिल हैं। ईरान के संबंध भी अमेरिका के साथ ठीक नहीं हैं, इसलिए वह भी अफगानिस्तान के मामले में इन तीन देशों के साथ है और तालिबान को मान्यता देने के पक्ष में ही नज़र आ रहा है। रूस और ईरान के रुख को भारत के लिए चिंता का विषय माना जा रहा है। सुरक्षा को लेकर मध्य और दक्षिण एशिया के देशों की चिंताएं भी बढ़ रही हैं। सत्ता पर कब्जा करने के बाद तालिबान ने कई घोषणाएं कर अपना उदारवादी चेहरा दिखाने की कोशिश की है, लेकिन कई इलाकों में उन लड़ाकों की ज्यादती बढ़ रही है।
कहां खड़ा भारत

भारत के सामने अहम सवाल है कि वह तालिबान शासन के साथ कैसे संबंध रखे। काबुल पर तालिबान के कब्जे के पहले कहा गया कि बंदूक के दम पर सत्ता का समर्थन नहीं किया जाएगा। अब हालात बदल गए हैं। सामरिक मामलों के जानकारों की राय में भारत को अभी जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए। तालिबान से भारत को दोहरा नुकसान है। जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा जैसे भारत विरोधी आतंकी संगठनों की गतिविधियों का केंद्र अफगानिस्तान रहा है। दूसरे, तालिबान की अफगानिस्तान में चीन और पाकिस्तान जैसे भारत-विरोधी देशों की सक्रियता है।

ये दोनों ही देश अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव कम करने और अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में जुट गए हैं। चीन की ओर से अफगानिस्तान में तालिबान शासन को मान्यता देना इस दिशा में पहला बड़ा कदम है। फिलहाल, भारत ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। भारत इस समय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की दो बैठकों की अध्यक्षता कर चुका है। भारत ने तालिबान से संपर्क साधा है। दोहा में एक स्तर की बातचीत हो चुकी है। कतर की मध्यस्थता में आगे की बातचीत से गांठें खुलेंगी। अफगानिस्तान में 20 साल में भारत ने 500 छोटी-बड़ी योजनाओं पर पैसा खर्च किया है। स्कूल, अस्पताल, बच्चों के हॉस्टल, पुल और संसद भवन तक बनवाए हैं।
चीन-रूस-ईरान और पाक

चीन ने काबुल में दूतावास खुला रखा है। चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने तालिबान शासन के साथ मिलकर काम करने की इच्छा जताई है। पिछले महीने के आखिर में चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने मुल्ला बरादर समेत तालिबान के वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात भी की थी। तालिबान से चीन दो विषयों पर आश्वासन चाह रहा है। एक तो, शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिम आतंकी समूहों की ओर से तालिबान मुंह मोड़ ले और दूसरे पाकिस्तान में चल रहे उसकी परियोजनाओं को सुरक्षा दे। रूस का ध्यान अभी अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा पर मध्य एशियाई राज्यों में संगठित आतंकी समूहों को कमजोर करना है। साथ ही रूस के लिए अमेरिका का वहां से हटना मुफीद है। ईरान की कूटनीति का अहम आधार यही है। लेकिन ईरान अपने यहां शरणार्थी समस्या विकट होने और नशे का कारोबार बढ़ने की आशंका को लेकर सचेत भी है। अफगानिस्तान में नौ फीसद आबादी हजारा है, जो शिया मुसलिम है। पाकिस्तान को फायदा कम और चुनौतियां ज्यादा हैं।

पाकिस्तान की खुफिया आइएसआइ ने तालिबान को खासी मदद दी है। लेकिन अब अपने यहां गृहयुद्ध का डर है। तालिबान शासन से तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के ताकतवर होने का डर भी है। यह पाकिस्तान के वजीरिस्तान और आसपास के इलाकों में कट्टरपंथी गतिविधियों के साथ बड़ी चुनौती बनेगा। इस समूह के निशाने पर पाकिस्तानी सेना ही नहीं रही, बल्कि चीन की परियोजनाएं भी रही हैं।

खनिज संपदा पर निगाह

1- अफगानिस्तान में कई तरह के खनिज हैं जिनकी कीमत करीब 74 लाख करोड़ रुपए आंकी गई है। चीन वहां खनन में निवेश कर चुका है।
2- यूएस जियोलॉजिकल सर्वे (यूएसजीएस) की जनवरी की एक रिपोर्ट के अनुसार खनिजों में बॉक्साइट, तांबा, लौह अयस्क, लिथियम आदि हैं।
3- अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजंसी के अनुसार, वर्ष 2040 तक दुनिया में लिथियम की मांग 40 गुना बढ़ने की उम्मीद है। पुस्तक ‘द रेयर मेटल्स वॉर’ के लेखक गिलाउम पिट्रोन के मुताबिक, ‘अफगानिस्तान लिथियम के एक विशाल भंडार पर बैठा है जिसका आज तक दोहन नहीं किया गया है।’
4- अफगानिस्तान में नियोडिमियम, प्रेजोडियम और डिस्प्रोसियम आदि रेयर अर्थ मेटल भी हैं जिनका उपयोग स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में किया जाता है।

क्या कहते हैं जानकार

अफगानिस्तान में भू-राजनीतिक पुनर्गठन के कारण चीजें पूरी तरह उलट-पलट हो सकती हैं। चीन और पाकिस्तान एक दूसरे के सहारे एक दूसरे का हाथ पकड़ कर अफगानिस्तान जाना चाहेंगे। लेकिन आशंका है कि चीन वे गलतियां दोहराएगा, जो पहले विश्व शक्तियां कर चुकी हैं। रूस और ईरान अपने पुराने अनुभवों के आधार पर सावधानी बरत रहे हैं।

  • गौतम मुखोपाध्याय, भारत के पूर्व राजदूत

पश्तूनों के नेतृत्व वाले तालिबान ने कभी भी पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच की सीमा को मान्यता ही नहीं दी है और यह पाकिस्तान के लिए परेशानी का सबब रहा है। हालांकि, अफगानिस्तान की सत्ता तालिबान के हाथ में होना भारत के खिलाफ पाकिस्तान को रणनीतिक मजबूती प्रदान कर रहा है। भारत के लिए ये बुरे और अधिक बुरे के बीच चुनाव करने का वक्त है।

  • जितेंद्र नाथ मिश्रा, पूर्व राजनयिक