दीपक रस्तोगी

अफगानिस्तान नए दौर से गुजर रहा है। वहां सत्ता में बदलाव के बाद भारत के सामने सुरक्षा संबंधी चिंताओं के साथ ही कई अन्य अहम मसले हैं। अफगानिस्तान में भारत के आर्थिक हितों की रक्षा और दोस्ती बनाए रखने की कवायद आदि बहुत महत्त्वपूर्ण सवाल हैं। वहां काबुल पर काबिज तालिबान अफगानिस्तान को ‘इस्लामिक अमीरात आॅफ अफगानिस्तान’ के तौर पर परिभाषित कर रहा है।साल 2020 के ‘दोहा समझौते’ पर तालिबान ने इसी नाम से हस्ताक्षर किए थे। हाल में भारत को लेकर दो परिघटनाएं अहम हैं। एक तो अफगानिस्तान में तख्तापलट के बाद से भारत की स्थिति को लेकर बने संशय के माहौल को खुद तालिबान ने दूर करने का प्रयास किया है। दूसरे, भारत की अध्यक्षता के दौरान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रस्तावना में 15 दिनों के भीतर बदलाव कर संकेत दिया गया कि तालिबान से अब गुरेज नहीं। भारत समेत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्य तालिबान को अब सत्ता के एक भागीदार के रूप में देख रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावना

तालिबान के काबुल पर नियंत्रण के एक दिन बाद 16 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने संरा सुरक्षा परिषद की ओर से बयान जारी किया था, ‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आतंकवाद से लड़ने के महत्व की पुष्टि की है और यह भी माना है कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अफगानिस्तान के किसी भी क्षेत्र को किसी भी देश को धमकाने या उस पर हमले के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। और यहां तक कि तालिबान या किसी भी अफगान समूह या किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य देश में सक्रिय आतंकी का समर्थन नहीं करना चाहिए।’

अगस्त के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता भारत के पास ही है और उसने ही इस बयान पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके 10 दिन के बाद ‘यूटर्न’ दिखा। काबुल हवाई अड्डे पर बम धमाकों में 150 से अधिक लोगों के मारे जाने के एक दिन बाद 27 अगस्त को तिरुमूर्ति ने एक बार फिर परिषद की ओर से बयान जारी किया। इस बयान में लिखा था, ‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला करने के महत्व को दोहराया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी भी देश को धमकी देने या हमला करने के लिए न हो, और किसी भी अफगान समूह या व्यक्ति को किसी भी देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन नहीं करना चाहिए।’
तालिबान का रुख

अफगानिस्तान में समावेशी सरकार बनाने की कवायद चल रही है। अफगानिस्तान में तख्तापलट के बाद से भारत की स्थिति को लेकर बने संशय के माहौल को खुद तालिबान ने दूर करने का प्रयास किया है। तालिबान के शीर्ष नेताओं में शामिल शेर मोहम्मद अब्बास स्तेनकजई ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि उनका संगठन भारत और अफगानिस्तान के बीच मौजूद राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों को पहले की तरह ही जारी रखना चाहता है। स्तेनकजई ने पश्तो भाषा में एक वीडियो जारी कर कहा कि हम भारत के साथ अपने व्यापार, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को बहुत महत्त्व देना चाहते हैं और उस संबंध को बनाए रखना चाहते हैं।

सीधे शब्दों में कहें तो अशरफ गनी ने जो संबंध छोड़े तालिबान उसे आगे बढ़ाना चाहता है। स्तेनकजई ने भारत और अफगानिस्तान के बीच हवाई गलियारे को जारी रखने पर भी बात कही है। अफगान सेना की तरफ से 70 के दशक के दौरान देहरादून में भारतीय सैन्य अकादमी के कैडेट रहे स्तेनकजई ने तुकर्मेनिस्तान से अफगानिस्तान के रास्ते पाकिस्तान और भारत के लिए गैस लाने वाली तापी पाइप लाइन के निर्माण की बाधाएं दूर करने की भी बात कही। साथ ही ईरान पर बोलते हुए भारत की तरफ से विकसित चाबहार बंदरगाह की अहमियत का जिक्र भी किया।
गहरे द्विपक्षीय संबंध

जानकारों का कहना है कि तालिबान भारत द्वारा बनाई गई किसी भी ढांचागत परियोजना को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में नहीं है। तालिबान की कोशिश यह होगी कि भारत अफगानिस्तान में निवेश करना जारी रखे और वहां की स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश करे। भारत को अपने हितों को देखते हुए और अपने नागरिकों की सुरक्षा को देखते हुए अब फैसले लेने की जरूरत है। जानकारों के मुताबिक, भारत को तालिबान से यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि अगर वे निवेश एवं अन्य मसलों पर भारत की मदद चाहते हैं तो उन्हें भारत की शर्त माननी पड़ेगी।

अमीरात से आशय

तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने हाल के दिनों में कई बार दोहा समझौते का जिक्र किया और अफगानिस्तान के लिए ‘इस्लामिक अमीरात आॅफ अफगानिस्तान’ शब्द का इस्तेमाल किया। फारस की खाड़ी के कई देश इसी तरह के हैं। जैसे कतर, कुवैत अमीरात हैं। संयुक्त अरब अमीरात, अमीरातों का महासंघ है।

गणतांत्रिक देशों में राष्ट्रपति धार्मिक नेता नहीं होते हैं लेकिन अमीरात व्यवस्था वाले मुल्कों में राष्ट्राध्यक्ष धार्मिक नेतृत्व ही होता है। राजनीतिक और धार्मिक शक्तियां एक व्यक्ति में केंद्रित होती हैं, और वह शख्स मुल्क का आमिर होता है। आमिर का मतलब है वफादार और भरोसेमंद लोगों का कमांडर। ज्यादातर मुसलिम देशों में यह आम बात है कि राजनीतिक और धार्मिक ताकत एक ही व्यक्ति में निहित होती है। तालिबान जिस अमीरात की बात कर रहे हैं, वह इस्लामिक स्टेट की खिलाफत से अलग है। खिलाफत की संकल्पना चार खलिफाओं के दौर से जुड़ी हुई है। जब खिलाफत का निजाम कमजोर पड़ने लगा तो अमीरातों और सल्तनतों का उदय शुरू हुआ।

क्या कहते हैं जानकार

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अमेरिका जिसने स्पष्ट रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद पर बयान के लिए जोर दिया है, उसने खुद तालिबान को हवाई अड्डे पर हमले के लिए दोषमुक्त कर दिया है और आइएस-के पर निशाना साधा है। अमेरिका तालिबान की प्रशंसा कर रहा है।

  • कंवल सिब्बल,पूर्व भारतीय विदेश सचिव

कूटनीति में एक पखवाड़ा काफी लंबा समय होता है। संरा सुरक्षा परिषद में भारत की निगरानी में आतंक के संदर्भ में तालिबान शब्द हटा दिया गया। भारत की अध्यक्षता वाली 1988 तालिबान प्रतिबंध समिति में क्या होगा-इसका संकेत साफ है। तालिबान को सत्ता का भागीदार मान लेना समय की मांग है।

  • सैयद अकबरुद्दीन, संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व स्थायी राजदूत