मनोज कुमार मिश्र

उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव की शुरुआत जाटों के दबदबा वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दिल्ली की सीमा से लगे 11 जिलों के 58 विधानसभा सीटों के लिए 10 फरवरी को और नौ जिलों की 55 सीटों पर 14 फरवरी को मतदान से होना है। समय के हिसाब से इन सीटों का भूगोल ही नहीं जातीय समीकरण भी बदल गए।

पहले कांग्रेस और चौधरी चरण सिंह के परिवार के दबदबा वाले इस इलाके में पिछले चुनाव में भाजपा को बड़ी जीत मिली थी। यह बदलाव अयोध्या राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान हुआ। यह इलाका देश के उन इलाकों में शामिल था, जहां आर्य समाज का सबसे ज्यादा असर था। मंदिर आंदोलन ने जाट और गुर्जरों जैसे मजबूत किसान जातियों को भी कट्टर सनातनी हिंदू बना दिया।

इस इलाके में सर्वाधिक आबादी मुसलिम और जाटवों (दलितों) की है, लेकिन सबसे ज्यादा दबदबा जाटों का है। पूरे इलाके में डेढ़ दर्जन से ज्यादा विधानसभा की सीटें ऐसी है, जहां जाट मतदाता 40 फीसद से ज्यादा हैं लेकिन उनका असर करीब सौ सीटों पर माना जाता है। मन से तो इस इलाके के जाट चौधरी चरण सिंह के परिवार से अपना जुड़ाव रखना चाहते हैं।

चौधरी साहब के बाद अजित सिंह का राष्ट्रीय राजनीति में दखल कम होने के बाद जाट भाजपा से जुड़ते गए और इलाके के 80 फीसद सीटों पर भाजपा का कब्जा होता चला गया। भाजपा को सत्ता में होने का भी लाभ मिला। अजित सिंह के न रहने के बाद यह पहला चुनाव है जिसमें उस विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उनके पुत्र जयंत चौधरी को है। वे इस विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के छोटे भाई की भूमिका में चुनाव मैदान में हैं। उन पर भाजपा भी डोरे डालकर जाटों की सहानुभूति पाने में लगी है।

1989 में पहली बार अपने पिता की परंपरागत बागपत सीट से अजित सिंह सांसद बने। वे जनता दल के प्रधान महा सचिव और केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनने पर उद्योग मंत्री बने। वे कई सरकारों में मंत्री रहे लेकिन मुख्यमंत्री की लड़ाई मुलायम सिंह यादव से हारने के बाद उनका राजनीति असर कम होता गया। एक समय वे अपने पिता की तरह प्रधानमंत्री पद के दावेदार माने जा रहे थे, बाद में किसी तरह से मंत्री बन पाते थे। अपराजेय दुर्ग माने जाने वाले बागपत से भी वे 1998 और 2014 में पराजित हो गए।

अन्यथा वे 1989 से छह बार उस सीट से सांसद बने। परिसीमन से पहले बागपत लोक सभा सीट के नीचे पांच विधानसभा सीट होते थे-बागपत, खेकड़ा, छपरौली, बरनावा और अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सिवाल खास। चौधरी साहब पूरे प्रदेश में किसान बिरादरी को एक साथ करने के लिए अजगर(अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) के साथ मुसलिम समीकरण बनाने में लगे रहे।

बाद में इसमें मजदूर भी जोड़ा। यह प्रयोग बागपत में करते हुए अमूनन छपरौली और बरनावा से जाट जाति के बागपत से मुसलिम और खेकड़ा से गुर्जर जाति के उम्मीदवार चुनाव में उतारते थे। चौधरी साहब ने छपरौली से विधायक बनकर प्रदेश की और बागपत सांसद बनकर देश की राजनीति की। चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की अगुआई में 1987 से शुरू हुआ भारतीय किसान यूनियन में दबदबा जाटों की ही था।

अपने आंदोलन को अराजनीतिक बनाए रखने के लिए टिकैत नें चौधरी साहब की पत्नी गायत्री देवी को भी सम्मान देकर मंच पर नहीं चढ़ने दिया। वे चौधरी साहब को ही अपना आदर्श मानते थे। किसान यूनियन के मुख्यालय सिसौली में केवल चौधरी साहब की मूर्ति लगी है। राजनीति में जैसे ही टिकैत चौधरी साहब के बेटे अजित सिंह का विरोध करने लगे, उनका असर कम होने लगा।

उस आंदोलन के दौरान यह बार-बार साबित हुआ कि जाट केवल किसानों के मुद्दे पर चौधरी टिकैत के साथ हैं, राजनीति में उनकी पहली पसंद अजित सिंह ही हैं। शायद इसे भांप कर ही इस बार के किसान आंदोलन में नेता राकेश टिकैत ने आंदोलन से जयंत चौधरी को दूर नहीं रखा। इसका ही असर दिख रहा है कि किसान आंदोलन की नाराजगी दूर करने के लिए प्रधानमंत्री ने तीनों किसान कानून वापस लेने के बाद भी गृह मंत्री अमित शाह राष्ट्रीय लोक दल अध्यक्ष जयंत चौधरी को अपने साथ आने का प्रस्ताव यह जानते हुए दे रहे हैं कि उनका सपा से गठबंधन है।