राम मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम संपन्न हो गया है। जिस कार्यक्रम को लेकर विपक्षी गलियारों में धर्मसंकट की स्थिति बनी हुई थी, वो सफलतापूर्वक पूरा किया गया है। अब प्राण प्रतिष्ठा तो हो गई, रामलला भी विराजित कर दिए गए, लेकिन एक सवाल रह गया- विपक्ष का इस कार्यक्रम से दूरी बनाना सही था या गलत? इसके ऊपर सवाल तो ये भी उठता है कि जिन तर्कों के आधार पर कार्यक्रम से दूरी बनाई गई, वो तर्कसंगत रहा?

कांग्रेस ने जब इस कार्यक्रम में आने से मना किया, उसने दोनों तरफ से बैटिंग करने की कोशिश की। किसी को बुरा ना लगे इसलिए बोल दिया कि सम्मान के साथ अस्वीकार करते हैं। लेकिन जिन कारणों से पार्टी ने कार्यक्रम में आने से मना किया, उसने जरूर उसे विवादों में लाया। पार्टी ने इसे राजनीतिक इवेंट बता दिया था, इसे सीधे-सीधे पीएम मोदी और संघ से जोड़ दिया था। यानी कि कांग्रेस ने एक धार्मिक इवेंट को राजनीतिक करार दिया था।

अब कांग्रेस की ही तरह उद्धव ठाकरे ने भी इस कार्यक्रम से दूरी बनाई थी। पहले तो उन्हें निमंत्रण नहीं मिला, बाद में स्पीड पोस्ट से जरूर आया। उनका लॉजिक ये रहा कि बीजेपी नहीं उनके पिता बालासाहेब ठाकरे का मंदिर आंदोलन में योगदान रहा। संजय राउत ने तो यहां तक बोल दिया था कि अगर कांग्रेस की जगह बीजेपी सरकार होती तो बाबरी मस्जिद कभी नहीं तोड़ी जाती। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी ने अपना सेकुलर वाला दांव चला और सभी धर्मों के सम्मान की बात की।

लेकिन सबसे अलग, सबसे जुदा और कह सकते हैं सबसे सटीक रणनीति दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की दिखी। उन्होंने कार्यक्रम में आने से एक बार भी मना नहीं किया। उन्होंने एक बार भी ये नहीं बोला कि ये बीजेपी का इवेंट है। अहसास तो उन्हें भी था कि बीजेपी इस कार्यक्रम के जरिए पॉलिटिकल माइलेज जरूर लेगी। लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी राजनीतिक सूझबूझ दिखाई और एक बार भी ऐसा बयान नहीं दिया जिससे उन्हें हिंदू विरोधी या मंदिर विरोधी कहा जाए।

अरविंद केजरीवाल ने मीडिया से बात करते हुए बोला था कि मुझे 22 जनवरी का निमंत्रण नहीं मिला। एक लेटर जरूर आया था जिसमें कहा गया था कि कोई निजी रूप से आएगा बुलाने के लिए। लेकिन कोई आया नहीं, अभी क्या स्थिति है पात नहीं। लेकिन कोई बात नहीं, लेटर में बोला गया था कि कई VVIP आने वाले हैं, ऐसे में सिर्फ एक शख्स ही जा सकता है। मेरा मन है कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वहां जाऊं। मेरे माता-पिता भी वहां जाने के लिए उत्साहित हैं। तो अब 22 के बाद ही मौका लगते ही पूरे परिवार के साथ आऊंगा।

अब इस एक बयान से कई चीजें साफ हो जाती हैं। अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी को घेरने का एक मौका नहीं दिया, उन्होंने एक बार भी कार्यक्रम की बुराई नहीं की। उनकी तरफ से ‘बीजेपी या मोदी’ शब्द का प्रयोग तक नहीं किया गया। वे चाहते तो इंडिया गठबंधन के नेताओं जैसा स्टैंड लेते और सीधे-सीधे इसे बीजेपी-संघ का कार्यक्रम बता देते। लेकिन नहीं, केजरीवाल ने कम समय में ही राजनीति के वो गुण सीख लिए हैं जो कई नेता सालों बाद भी समझने में चूक जाते हैं।

अरविंद केजरीवाल की सियासत पर नजर डालें तो उन्होंने खुद को समय के साथ बदला है। पहले वे भी दूसरे विपक्षी नेताओं की तरह सिर्फ पीएम मोदी पर निजी हमले करते थे। लेकिन समय रहते उन्हें अहसास हो गया कि ये तरीका फायदे से ज्यादा नुकसान देता है, इसी वजह से उन्होंने निजी हमलों के बजाय बीजेपी की पिच पर उसे हराने की तैयारी की। इसी वजह से इस बार जब प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम चला, दिल्ली में भी दिवाली जैसा माहौल दिखा।

जिस समय कांग्रेस शासित राज्यों ने 22 जनवरी को छुट्टी देने से परहेज किया, केजरीवाल ने आधे दिन का अवकाश पहले से ही घोषित कर दिया। इसके ऊपर रामलीला का मंचन करना एक बड़ा मास्टरस्ट्रोक माना गया। उन्होंने कोई बीजेपी को फॉलो नहीं किया, उनकी जैसी सियासत करने की भी कोशिश नहीं दिखी, लेकिन कोई ये भी नहीं कह सकता कि वे कम हिंदू थे, उनमें आस्था नहीं थी। दिल्ली में जगह-जगह सुंदरकाड का पाठ हुआ है, शोभा यात्रा निकाली गई है, हनुमान चालीसा गाई गई है। बड़ी बात ये है कि प्राण प्रतिष्ठा की हवा के बीच भी अरविंद केजरीवाल के ये प्रयास जनता को दिखे, लोगों के बीच में नेरेटिव सेट हुआ कि अयोध्या नहीं जा सके तो कोई नहीं, दिल्ली में ही राम भक्ति का अहसास हो गया।

आम आदमी पार्टी की यही रणनीति भी दिखाई दे रही थी। वो बिना बीजेपी के ट्रैप में फंसे अपनी सहूलियत वाली हिंदुत्व की राजनीति कर रही थी। इससे पहले भी सीएम केजरीवाल द्वारा ही चुनावी मौसम में नोटों पर भगवान गणेश और लक्ष्मी जी की तस्वीर की मांग कर चुके हैं। ये बताने के लिए काफी है कि वे खुद पर दूसरे विपक्षी नेताओं की तरह आसानी से तुष्टीकरण का आरोप नहीं लगने देते। बल्कि इसके बजाए वे खुद हर धर्म के लिए कुछ ना कुछ समय-समय पर करते दिख जाते हैं।

अरविंद कजेरीवाल चाहते तो इस बात को बड़ा मुद्दा बना सकते थे कि उन्हें न्योता तक नहीं मिला, या फिर वे भी दूसरे विपक्षी दलों की तरह बस आने से मना कर जाते, लेकिन उन्होंने अपना दिमाग लगाया और बीजेपी को ही उसके जाल में फंसा दिया। इस समय इंडिया गठबंधन में सिर्फ अरविंद केजरीवाल एक ऐसे बड़े नेता दिखाई दे रहे हैं जिन्होंने मंदिर कार्यक्रम में ना जाकर भी खुद को हिंदू विरोधी ना कहलाने से बचा लिया है।

अब सीएम केजरीवाल की ये रणनीति ही उन्हें बीजेपी के सामने एक मजबूत चुनौती बनाती है। इस समय देश की जनता के सामने भी सवाल यही चल रहा है कि मोदी बनाम कौन? अब विपक्ष ने तो अभी तक इसका जवाब नहीं खोजा है, लेकिन अरविंद केजरीवाल की सियासत ने इतना तो बता दिया है कि बीजेपी को हराने के लिए वे भी एक मजबूत विकल्प बन सकते हैं। ये बात इस वजह से भी मायने रखती है क्योंकि अरविंद केजरीवाल को हर वर्ग का समान वोट मिल सकता है। उनकी पार्टी अभी तक उस जाल में नहीं फंसी है जहां उन्हें किसी एक विशेष धर्म तक सीमित किए जा सके।