Lok Sabha Election 2019 में लंबे समय बाद विदिशा हॉट सीटों में शुमार नहीं है। करीब तीन दशकों से यहां बीजेपी के दिग्गजों का कब्जा रहा है। अब तक इसे मध्य प्रदेश की सबसे हाईप्रोफाइल लोकसभा सीट माना जाता रहा है, लेकिन इस बार दोनों चेहरे संसदीय चुनाव के लिहाज से नए हैं। 1967 में चौथे लोकसभा चुनाव के दौरान अस्तित्व में आई इस लोकसभा सीट की अपनी अलग ही पहचान है। शांति का नोबेल जीतने वाले कैलाश सत्यार्थी भी यहीं जन्मे थे। हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म के कई महत्वपूर्ण स्मारक आज भी यहां मौजूद है, विदिशा संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सांची का बौद्ध स्तूप बेहद भी प्रसिद्ध है। विदिशा का जिक्र रामायण और महाभारत में भी हुआ बताया जाता है। यह शहर कभी मालवा क्षेत्र की राजधानी भी रहा है। इस तरह धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह क्षेत्र बेहद महत्वपूर्ण है।
2019 में दोनों चेहरे नए, ऐसी है जंगः इस चुनाव में सुषमा स्वराज मैदान में नहीं हैं। उन्होंने पहले ही चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान कर दिया था। लोकसभा चुनाव के लिहाज से दोनों ही प्रत्याशी नए हैं।
रमाकांत भार्गव, बीजेपीः सुषमा की जगह बीजेपी ने इस बार रमाकांत भार्गव को मौका दिया है। शिवराज के करीबी माने जाने वाले भार्गव का यह पहला लोकसभा चुनाव है। फिलहाल वे जिला सहकारी बैंक और एपेक्स बैंक के अध्यक्ष हैं। विदिशा की जनता में उनकी छवि सरल स्वभाव वाले नेता की है। ब्राह्मण वर्ग से आने वाले भार्गव के लिए यहां जातीय और राजनीतिक समीकरण भी मोटेतौर पर पक्ष में दिख रहे हैं।
शैलेंद्र पटेल, कांग्रेसः बीजेपी के गढ़ में सेंध लगाने के लिए कांग्रेस ने इछावर के विधायक रहे शैलेंद्र पटेल को मैदान में उतारा है। पटेल यूथ कांग्रेस में प्रदेश महामंत्री, जिलाध्यक्ष और लोकसभा अध्यक्ष भी बने। 2013 में राजस्व मंत्री और 28 सालों से विधायक रह चुके बीजेपी के करण सिंह वर्मा को महज 744 वोटों से हराया था। हालांकि 2018 के चुनाव में वर्मा ने उन्हें फिर हरा दिया।
सुषमा के जाने का कितना नुकसानः विदिशा बस स्टैंड पर पान की दुकान चलाने वाले राजेश सिरोठिया कहते हैं, ‘सुषमा स्वराज बड़ा चेहरा थीं लेकिन बड़े नामों का विदिशा को बहुत ज्यादा फायदा नहीं मिला। भार्गव स्थानीय चेहरा है और उन्हें यहां की समस्याओं की समझ है। इसका बीजेपी को फायदा मिलेगा।’ इसी दुकान पर खड़े कॉलेज में अंतिम सत्र की पढ़ाई कर रहे छात्र सचिन यादव कहते हैं, ‘किसी के आने-जाने से ज्यादा जॉब से मतलब है। विदिशा राजधानी के पास होने के बावजूद शिक्षित लोगों के लिए नौकरियां बेहद सीमित हैं।’ सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले एक शिक्षक ने पहचान जाहिर न करने की शर्त पर ग्रामीण इलाकों के माहौल पर चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘लोगों को बड़े नामों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, उनकी अपनी समस्याएं हैं। बीजेपी को इस बार थोड़ा नुकसान हो सकता है लेकिन इससे सिर्फ जीत का अंतर कम होगा। कांग्रेस के लिए जीतना मुश्किल है।’

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क्या हैं यहां के बड़े मुद्देः विदिशा के शासकीय महाविद्यालय के करीब आधा दर्जन छात्र रेलवे स्टेशन के नजदीक चाय पर चर्चा कर रहे थे। जब उनकी बातों को सुना गया तो पढ़ाई पर किए गए खर्च और उसके एवज में मिल रही जॉब और पैकेज प्रमुख मुद्दा थी। ये सभी छात्र नियमित पढ़ाई के साथ-साथ किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हैं। वे पढ़ाई के बाद आने वाली चुनौतियों को लेकर चिंतित थे। हालांकि जब उनसे बात की गई तो वे अपनी समस्याओं को भूलकर सर्जिकल स्ट्राइक की बात पर आ गए। भोपाल से विदिशा आने के दौरान जब एक निजी बस के कंडक्टर महेंद्र सिंह सहरिया से चर्चा शुरू हुई तो वे माहौल बीजेपी के पक्ष में बताते दिखे। उन्होंने कहा बस बच्चों के भविष्य की चिंता है। सहरिया कहते हैं, ‘हमारी जिंदगी तो निकल गई, बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर रहे हैं, उनको अच्छी नौकरी मिल जाए यही चाहते हैं।’ वहीं बीजेपी का समर्थन करते देख कुछ कांग्रेस समर्थक यात्रियों ने भी अपने तर्क रख दिए। उन्होंने नोटबंदी-जीएसटी को लेकर नाराजगी जाहिर की और कहा कि शिवराज के बाद अब मोदी का नंबर है। उनके मुताबिक मोदी को भी करीबी हार का सामना करना पड़ेगा।

कर्क कनेक्शन- यहां जो जीता, उसने राज कियाः 1989 से बीजेपी का गढ़ रही इस सीट की कई पहचान है। विदिशा से कर्क रेखा भी गुजरती है, कई विद्वान इसे यहां से जीतने वालों की राजनीतिक सफलता से भी जोड़ते हैं। यहां से जिस भी नेता ने प्रतिनिधित्व किया उसने प्रदेश और देश की सियासत की बुलंदियों को छुआ है। अलग लोकसभा क्षेत्र बनने के बाद कांग्रेस यहां सिर्फ दो बार जगह बना पाई है, वो भी लहर के समय 1980 और 1984 में।
अटल बिहारी वाजपेयीः 1991 में अटल बिहारी लखनऊ के साथ-साथ विदिशा से भी सांसद बने थे। हालांकि उन्होंने यह सीट छोड़ दी थी। अटल बिहारी बाद में देश के प्रधानमंत्री बने। अपने राजनीतिक जीवन में वे कई अहम पदों पर रहे।
शिवराज सिंह चौहानः 1991 में अटल बिहारी के सीट छोड़ने के बाद हुए उपचुनाव में जीतकर शिवराज पहली बार सांसद बने थे। 1991 से 2004 तक शिवराज यहां से लगातार पांच बार सांसद बने। 2005 में उन्होंने मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद यह सीट छोड़ी थी।
सुषमा स्वराजः 2009 और 2014 के चुनाव में सुषमा स्वराज यहां से सांसद बनीं। मौजूदा सरकार में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज दिल्ली की मुख्यमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के अलावा केंद्र में कई अहम पदों पर रहीं।
राघवजीः मध्य प्रदेश की राजनीति में राघवजी का नाम बेहद चर्चित है। विदिशा के बड़े नेताओं में शुमार राघवजी मध्य प्रदेश सरकार में वित्त मंत्री भी रहे हैं।
ये भी रहे सांसदः यहां से सांसद बने लोगों में एस शर्मा (1967), रामनाथ गोयनका (1971), प्रतापभानू कृष्ण गोपाल (1980 और 1984), रामपाल सिंह (2006 उपचुनाव) भी शामिल हैं।

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क्यों कहते हैं गिफ्ट वाली सीटः 1991 में अटल बिहारी वाजपेयी विदिशा के साथ-साथ लखनऊ से भी चुनाव जीते थे। तब उन्होंने विदिशा सीट छोड़ दी थी। तब बुधनी के विधायक शिवराज सिंह चौहान को यहां से उपचुनाव लड़वाया गया। माना जाता है कि अटल जैसे दिग्गज नेता ने उस चुनाव में शिवराज को यह सीट तोहफे में दी थी। इसके बाद जब शिवराज ने मुख्यमंत्री बनकर सीट छोड़ी तो उनके बाद अगला चुनाव (उपचुनाव छोड़कर) सुषमा स्वराज ने लड़ा। इस समय तक शिवराज इस सीट को बीजेपी के गढ़ में तब्दील कर चुके थे। ऐसे में सुषमा के लिए यहां से जीतना बड़ी चुनौती नहीं थी। विदिशा को पहले से अटल से शिवराज और फिर शिवराज से सुषमा को तोहफे में मिली सीट कहा जाता है।
विधानसभा चुनाव में ऐसा रहा हालः लोकसभा की तरह विधानसभा चुनावों में भी यह क्षेत्र बीजेपी का गढ़ रहा है। विदिशा के लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली आठ में से सिर्फ दो सीटों पर कांग्रेस जीत पाई थी। भोजपुर, सिलवानी, बासौदा, बुधनी, इछावर और खातेगांव में बीजेपी ने जीत दर्ज की थी, वहीं सांची और विदिशा कांग्रेस के खाते में गई। विदिशा विधानसभा सीट से कांग्रेस के शशांक भार्गव ने शिवराज के बेहद करीबी मुकेश टंडन को हराया था।
ऐसा है जातिगत समीकरणः चुनाव आयोग के मुताबिक 2014 में यहां कुल 16,34,370 मतदाता थे। इनमें से 8.72 लाख पुरुष और 7.61 लाख महिला मतदाता शामिल थे। यहां करीब 81 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है। करीब 24 फीसदी जनसंख्या अनुसूचित जाति-जनजाति की है।

