बिहार से विपक्षी एकता की नई पटकथा लिखने की तैयारी है। 2024 की लड़ाई के लिए 23 जून को पटना में महा बैठक बुलाई गई है। पहले 11 जून को होनी थी, लेकिन कांग्रेस की वजह से आगे पोस्टपोन करना पड़ गया। अब तारीख तय है, कौन-कौन आ रहा है, ये भी तय है, लेकिन एक नाम मिसिंग है, पूर्व सीएम जीतन राम मांझी। इस समय बिहार में महागठबंधन का हिस्सा हैं, उनके बेटे तो राज्य सरकार में मंत्री भी बनाए गए हैं। लेकिन इस सब के बावजूद भी मांझी को इस बड़ी बैठक का अब तक बुलावा नहीं आया है।

क्या नीतीश खो रहे मांझी पर भरोसा?

एक न्यूज पोर्टल से बात करते हुए जीतन राम मांझी ने कहा है कि अभी उन्हें बैठक का कोई बुलावा नहीं आया। अगर बुलाया गया तो ठीक, नहीं बुलाया गया तो भी बड़ी बात नहीं। हम नीतीश कुमार के साथ पूरी मजबूती के साथ खड़े हैं। अब इस बयान को समझना जरूरी हो जाता है। मांझी तो नीतीश के साथ खड़े होने की बात कर रहे हैं, उन्हें पीएम मेटेरियल भी बता चुके हैं। लेकिन क्या नीतीश भी ऐसा ही सोचते हैं? क्या नीतीश कुमार को मांझी पर पूरा भरोसा है?

इन सवालों को लेकर असमंजस का माहौल है और इसके अपने कारण भी हैं। जीतन राम मांझी का 40 साल से ज्यादा लंबा पॉलिटिकल करियर है, पांच बार तो वे सिर्फ पार्टियां बदल चुके हैं। कांग्रेस में रहे हैं, लालू की आरजेडी के साथ काम किया है, जेडीयू के साथ भी लंबा समय बिता चुके हैं और इस समय अपनी खुद की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा की अगुवाई करते हैं। यानी कि मांझी को लेकर कहा जा सकता है कि वे राजनीति के मामले में ‘अनप्रिडिक्टेबल’ हैं और समय-समय पर सियासी माहौल भापकर पाला बदलते रहते हैं।

पाला बदलने वाले मांझी, अनप्रिडिक्टेबल बनी खूबी

शुरुआत से शुरू करते हैं, 1980 के दौर में जीतन राम मांझी ने राजनीति में एंट्री की थी। 12 साल तक डाक विभाग में नौकरी करने के बाद उन्होंने राजनीति में कदम रखने का फैसला किया। कांग्रेस से पारी का आगाज हुआ, कई सालों तक साथ रहे, लेकिन दो बार चुनाव जीतने के बाद 1990 में फतेहपुर सुरक्षित सीट से एक हार ने उनका मन बदल दिया और वे जनता दल के साथ चले गए। यानी दस साल बाद ही उनका पहला पाला बदलने वाला दांव पूरा हो चुका था। फिर कुछ सालों बाद जनता दल से अलग होकर लालू प्रसाद यादव ने आरजेडी बनाई और मांझी भी उनके साथ बंध लिए। जब राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं, मंत्री का एक पद मांझी को भी दिया गया।

इसी तरह बाद में जेडीयू में शामिल हुए, नीतीश के करीबी बने, ऐसे रिश्ते बनाए कि मुख्यमंत्री बनने का मौका भी मिल गया। लेकिन बाद में उस कुर्सी के मोह ने ही ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि आठ महीने के अंदर मांझी को सीएम पद छोड़ना पड़ गया। अब वर्तमान में मांझी फिर नीतीश के साथ हैं, सरकार में उनकी पार्टी सहयोगी भी है। लेकिन तमाम तरह की तवज्जो के बावजूद विपक्षी एकता की बैठक में नहीं बुलाया गया है।

विपक्षी बैठक में क्यों नहीं बुलाया गया?

इस बैठक में राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, शरद पवार, हेमंत सोरेन, उद्धव ठाकरे जैसे कई नेता आने वाले हैं। यानी कि मंच बहुत बड़ा है, तैयारी 450 विधानसभा सीटों पर साझा प्रत्याशी उतारने को लेकर है। लेकिन उसी बैठक से मांझी को दूर रखा जा रहा है। इसका कारण क्या है- मांझी का कमजोर होता सियासी जनाधार?

अब इस सवाल का जवाब दो बातों से मिलेगा- पहला पिछले कुछ सालों में हिंदुस्तान आवाम मोर्चा का विधानसभा और लोकसभा में कैसा प्रदर्शन रहा है। दूसरा पहलू ये समझना पड़ेगा कि मांझी जिस जाति से आते हैं, वो नीतीश के लिए कितनी निर्णायक है और क्या सीएम के पास कोई दूसरा बड़ा विकल्प है? 2015 के विधानसभा चुनाव से शुरू करते हैं, मांझी ने अपनी नई-नई पार्टी बनाई ही थी। बीजेपी ने बड़ा दांव चला, उनकी पार्टी के साथ गठबंधन किया और लड़ने के लिए 21 सीटें मिल गईं। पार्टी को लगा था कि दलित समुदाय के बीच में अच्छा मैसेज जाएगा, मांझी समुदाय का जो 4 फीसदी वोट है, वो जमीन पर मजबूती देगा।

पिछले चुनावों में मांझी की पार्टी का प्रदर्शन

लेकिन उस चुनाव में जीतन राम मांझी अकेले अपनी सीट निकाल पाए, बाकी बची 20 सीटों पर करारी हार का सामना करना पड़ा, कुछ सीटों पर तो जमानत भी जब्त हो गई। यानी कि बहुत ही निराशाजनक प्रदर्शन। इसके बाद दूसरी बड़ी चुनौती 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त आई। 2015 की हार को चार साल बीत चुके थे और मांझी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में पाला बदल लिया। वे लालू के महागठबंधन के साथ चले गए और उन्हें तीन सीटों पर लड़ने का मौका मिला। नतीजा ये निकला- तीनों सीटों पर करारी हार हुई। यानी कि उन चार सालों के दौरान सिर्फ मांझी के बयानों ने सुर्खियां बटोरीं, सियासी तौर पर चुनावों में उनकी पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा।

फिर आया 2020 का विधानसभा चुनाव, मांझी ने फिर पाला बदला और बीजेपी के साथ मिलकर वो चुनाव लड़ा। उस चुनाव में कुछ सीटों पर तो बीजेपी ने अपने कमल चिन्ह पर हम के प्रत्याशियों को उतारा। नतीजा ये रहा कि कुल चार सीट जीतने में मांझी की पार्टी कामयाब रही, यानी कि प्रदर्शन में थोड़ा सुधार देखने को मिला। लेकिन जब पिछले साल नीतीश ने बीजेपी से फिर नाता तोड़ा, मांझी की वफादारी भी उनके साथ चली गई और तब से वे नीतीश से नजदीकियां बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं।

मांझी का साथ जरूरी या मजबूरी, जाति कनेक्शन समझिए

अब जरा जीतन राम मांझी की जाति के बारे में थोड़ा समझ लेते हैं। जीनत राम मांझी, मांझी समुदाय से आते हैं। बिहार में ये वोटबैंक चार फीसदी के करीब है। अब एक नजर में चार फीसदी कोई बहुत निर्णायक नंबर नहीं है, लेकिन बड़ी बात ये है कि दलित जाति का ही एक हिस्सा है और उसकी सियासत बिहार में तगड़ी चलती है। बिहार में 16 फीसदी के करीब दलित है, वहां भी 38 विधानसभा सीटें और लोकसभा की 6 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं। यानी कि ये पूरा वोटबैंक निर्णायक है और इसी वजह से सरकार किसी की भी बने, जीतन राम मांझी को अपना एक पद तो मिल ही जाता है।

अब सवाल ये उठता है कि अगर जीतन राम मांझी जाति के लिहाज से इतने निर्णायक हैं, तो फिर विपक्षी बैठक में उन्हें क्यों नहीं बुलाया गया? अभी तक कोई औपचारिक बयान तो जारी नहीं किया गया है, लेकिन जानकार मानते हैं कि मांझी पर नीतीश ज्यादा भरोसा नहीं करते हैं। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि कुछ दिन पहले ही गृह मंत्री अमित शाह से मांझी की मुलाकात हुई है। मुलाकात का कारण कुछ और बताया गया, लेकिन टाइमिंग ऐसी रही कि जिस समय राजधानी में दो बड़े नेताओं की बैठक चल रही थी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी वहां मौजूद रहे।

नीतीश के मन में कोई बड़ा डर?

एक बयान में तो नीतीश कुमार भी कह चुके हैं कि मांझी को इधर-उधर नहीं जाने देना है, हमे ही उन्हें भी साथ लेकर चलना है। इस बयान से दो बातें स्पष्ट हैं- छोड़कर जा सकते हैं, इस बात का डर है, लेकिन साथ लेकर चलने की मजबूरी भी है। अब ये पहलू ही अविश्वास की एक खाई को पैदा कर रहे हैं और माना जा रहा है कि इस वजह से अभी तक जीतन राम मांझी को विपक्षी एकता की बैठक में नहीं बुलाया गया है। अब मांझी का अगला कदम क्या रहता है, वे बीजेपी के कास्ट कॉम्बीनेशन को मजबूत करने का काम करते हैं या नीतीश के साथ भी अपनी वफादारी रहते हैं, ये इस बात पर निर्भर रहेगा कि कौन सी पार्टी उन्हें कितना ‘ सम्मान’ देती है। बताया जा रहा है कि हम कुल पांच लोकसभा सीटों पर लड़ना चाहती है, कौन देने को राजी रहता है, उस पर ही आगे का खेल निर्भर करेगा।