नई दिल्ली म्यूनिसिपल काउंसिल (एनडीएमसी) ने सोमवार (छह फरवरी) को नई दिल्ली स्थित डलहौजी रोड का नाम बदलकर दारा शिकोह रोड कर दिया। नई दिल्ली की भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी के अनुसार पहले भाजपा नई दिल्ली स्थित औरंगजेब रोड का नाम दारा शिकोह रोड रखना चाहती थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। आखिर भाजपा को दारा शिकोह से इतना प्यार क्यों है? वो बार-बार उनके नाम पर सड़क का नाम क्यों रखना चाहती है? क्या सचमुच दारा शिकोह के संग न्याय नहीं हुआ है?
डलहौजी रोड का नाम दारा शिकोह रोड रखने का प्रस्ताव रखने वाली नई दिल्ली से भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “पहले औरंगजेब रोड का नाम बदलकर दारा शिकोह रोड रखने का प्रस्ताव था लेकिन एपीजे अब्दुल कलाम के देहांत के बाद एनडीएमसी ने उनके नाम पर रोड का नाम रखने का फैसला किया। मेरे ख्याल से दारा शिकोह एक ऐतिहासिक शख्सियत हैं जिन्हें वाजिब सम्मान नहीं मिला है।” लेखी ने एडीएमसी के चेयरमैन नरेश कुमार को तीन फरवरी को पत्र लिखकर कहा था, “मुगल शहंशाह शाह जहाँ के बड़े बेटे दारा शिकोह ने अमन-चैन को बढ़ावा दिया था और हिन्दू धर्म और इस्लाम के बीच एकता के लिए काम किया था।” एनडीएमसी में भाजपा का कब्जा है इसलिए नरेश कुमार सोमवार को ही लेखी का सुझाव मान गए। आइए जानते हैं कौन था दारा शिकोह।

कौन था दारा शिकोह?- दारा शिकोह पांचवे मुगल बादशाह शाह जहाँ का बड़ा बेटा था। दारा का जन्म 20 मार्च 1615 को अजमेर के निकट सागरताल में हुआ था। माना जाता है कि शाह जहाँ को कोई बेटा नहीं था इसलिए उन्होंने अजमेर स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जाकर बेटे की मन्नत मांगी थी। बादशाह की मुराद पुरी भी हुई और दारा का जन्म हुआ।
दारा का पालन-पोषण आम मुगल शहजादों की तरह ही हुआ लेकिन उसमें कम उम्र से ही सुफियाना झुकाव था। उसने मुल्ला अब्दुल लतीफ सहारनपुरी से कुरान, अरबी और फारसी इत्यादि की शिक्षा ली। दारा अपना ज्यादातर समय पुस्तकालय में बिताता था। उसने अपने समय की सभी महत्वपूर्ण सूफी ग्रंथों का अध्ययन किया। उसे सूफी संतों और विद्वानों के साथ चर्चा भी करता था। शायद यह दारा की ज्ञान पिपासा ही थी कि उसे केवल अरबी और फारसी ग्रंथों के अध्ययन से चैन नहीं मिला। उसने संस्कृत का भी गहन अध्ययन किया। कहा जाता है कि उसने बनारस से हिन्दू धर्म के प्रकांड विद्वानों को बुलाकर उनसे शिक्षा ली।
#FLASH Delhi's Dalhousie Road has been renamed to Dara Shikoh Road: NDMC Chairman Naresh Kumar
— ANI (@ANI) February 6, 2017
दारा को मुस्लिम रहस्यवाद और हिन्दू रहस्यवाद की साझी शिक्षाएं आकर्षित करती जा रही थीं। वो दोनों धर्मों की शिक्षाओं के मिलेजुले रूप का पैरोकार हो गया। दारा दोनों धर्मों के बीच आपसी समझ बढ़ाने के लिए भारतीय धर्म ग्रंथों का फारसी में अनुवाद करने लगा। 1650 में दारा ने योग वशिष्ठ और भगवद् गीता का फारसी में अनुवाद किया। बनारस के पंडितों के साथ मिलकर उसने 50 उपनिषदों का भी फारसी में अनुवाद किया। इस्लामी सूफीमत और हिन्दू धर्म के अपने अध्ययन के नतीजे के तौर पर 1656 में दारा ने मजमा-उल-बहरीन (दो समंदर का मिलन) नामक किताब लिखी। दारा का मानना था कि ये किताब दोनों धर्मों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान का निचोड़ है। धार्मिक ग्रंथों के अलावा दारा को कविताई का भी शौक था। दारा का दीवान भी प्रकाशित हुआ था। वो कला, संगीत और नृत्य को भी बढ़ावा देता था। माना जाता है कि दारा के छोटे भाई औरंगजेब को ये सब नहीं पसंद था।
शाह जहाँ ने 1642 में दारा को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। लेकिन जब 1657 में शाह जहाँ बीमार हुए तो उनके चारों बेटों में सत्ता का संघर्ष शुरू हो गया। मुख्य मुकाबला दारा और औरंगजेब के बीच था। 14 फरवरी 1658 को आगरा के निकट दोनों की सेनाओं में हुई लड़ाई में दारा को मात मिली। औरंगजेब ने किले पर कब्जा करके शाह जहाँ को कैद करवा दिया। लड़ाई में हार के बाद दारा सिंध भाग गया लेकिन वहां के शाह ने उसे धोखा दिया और 1659 में उसे औरंगजेब की सेना को सौंप दिया। 30 अगस्त 1659 को औरंगजेब ने दारा को मरवा दिया। दारा शिकोह को गंगा-जमुनी का प्रतीक और औरंगजेब का धार्मिक कट्टरता मानने वालों की कमी नहीं है। भाजपा समेत तमाम दक्षिणपंथी पार्टियों भी ऐसा ही मानती हैं। यही वजह है कि वो दारा शिकोह को एक प्रतीक के रूप में स्थापित करना चाहती हैं।