एक भी बच्चा छूटा सुरक्षा चक्र टूटा।’ यह नारा था पल्स पोलियो अभियान का। आज भारत पोलियो मुक्त है तो इसलिए कि भारत सरकार ने इसे जनकल्याणकारी योजना की तरह लिया और हर बच्चे तक इसकी मुफ्त और अनिवार्य पहुंच मुहैया करवाई। आज भारत का एक बड़ा तबका निजी अस्पतालों में बाजार के मुनाफे का हिस्सा भुगतान कर अपने बच्चों को इस दवा की खुराक दिलाता है। लेकिन यह दवा आज भी हर बच्चे के लिए मुफ्त है। कोई बच्चा पंचसितारा अस्पताल में सशुल्क यह दवा पाता है तो एक बड़े तबके के घर तक पहुंच कर सरकारी कर्मचारी इसकी खुराक दे जाते हैं।
हम कोरोना महामारी की दूसरी खतरनाक लहर का सामना कर रहे हैं और इस बात के सारे शोध हमारे सामने हैं कि कोरोनारोधी टीका इस विषाणु की मार से बचाने में कामयाब है। लेकिन भारत के सबसे बड़े टीकाकरण के आगे फीका पड़ने की आशंका नजर आने लगी है। वजह यह है कि दूसरी लहर के इस चरण में जब सरकार को टीकाकरण की अखंड भारत की नीति पर चलना था तो उसे उम्र, राज्य, टीकाकरण की जगह और उत्पादक की श्रेणियों में खंड-खंड कर दिया।
अब किसी व्यक्ति के टीकाकरण की कीमत इस बात पर निर्भर करेगी कि वह किस राज्य और जगह पर टीका लगवा रहा है। केंद्र सरकार को ‘कोवीशील्ड’ 150 रुपए प्रति खुराक, राज्य सरकारों को 400 और निजी अस्पतालों को 600 रुपए में मुहैया कराने की योजना है। सीरम ने तो पूरी दुनिया के मुकाबले भारत में ही सबसे ज्यादा 600 रुपए की दर रख दी है। वहीं, भारत बायोटेक की ‘कोवैक्सीन’ की कीमत तो इससे भी ज्यादा है। यह राज्यों को 600 रुपए और निजी अस्पतालों में 1200 रुपए में मुहैया कराने की बात कही गई है।
बड़ी खामी यह है कि निजी अस्पतालों के लिए सबसे ज्यादा कीमत रखी गई है। जबकि आपदा के इस समय में जब सरकार ने महामारी कानून लगा रखा है तो उसे निजी अस्पतालों के संसाधनों का पूरा इस्तेमाल करने के लिए उनके लिए भी कीमत समान ही रखनी चाहिए। आज जब पहले से ही संसाधन विहीन सरकारी अस्पताल पूरी तरह चरमरा रहे हैं तो निजी अस्पतालों को अलग द्वीप पर नहीं रखना चाहिए कि वे कमजोर तबके की पहुंच से बाहर हो जाएं। निजी अस्पतालों की आधारभूत संरचना बेहतर है और उन्हें रियायती दर पर टीकाकरण की सुविधा दिए बिना बीमारी की यह कड़ी टूट नहीं सकती है। अगर निजी अस्पताल 600 या 1200 रुपए में टीका खरीदेंगे तो वे अपने मुनाफे के साथ ही इसे देंगे और तब इसकी ऊंची कीमत का अंदाजा लगाया जा सकता है।
महामारी के इस मंजर पर मुनाफा प्राथमिकता नहीं हो सकता। प्राथमिकता यह है कि बड़ी आबादी को टीका लगे। अगर एक कीमत होगी तो कोई भी, कहीं भी जाकर टीका लगवा सकता है और ज्यादा से ज्यादा लोग इसके दायरे में आएंगे। अगर कीमत का बड़ा फर्क होगा तो कमजोर आयवर्ग का आदमी इधर-उधर कर कुछ पैसे बचाने की कोशिश में खुद को खतरे में डालता रहेगा। आज जब कोरोना के इलाज का बोझ सरकारी अस्पतालों पर आया तो कोरोना जांच की रिपोर्ट तीन दिन बाद भी नहीं मिल रही और लोग दाखिले के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं।
निजी अस्पतालों में इलाज इतना महंगा है कि चार दिन के दाखिले के बाद आम लोगों की जमापूंजी खत्म हो जा रही है। कोरोना के इलाज का यह हाल टीकाकरण का भी होगा तो फिर आगे हालात सुधरने की उम्मीद भी नहीं कर सकते हैं। आज निजीकरण एक बड़ा सच है और आम हालात में सरकार बाजार की प्रतियोगिता पर नियंत्रण नहीं रख सकती है। लेकिन अभी हालात अलग हैं और महामारी कानून लागू है। सरकार को निजी स्वास्थ्य संस्थाओं की क्षमता का पूरा इस्तेमाल करना चाहिए।
इसके पहले भी टीके के उत्पादन को लेकर भारत सरकार ने दवा कंपनियों के साथ कम खुराक का करार किया था। दवा कंपनियों का दावा है कि अन्य देशों से उत्पादन के लिए उसे पहले ही अनुदान मिल गया था। जहां करार ज्यादा हुआ, वहां आपूर्ति ज्यादा हुई। अमेरिका ने उन कंपनियों को भी पर्याप्त अनुदान दिया जो टीका उत्पादन के क्षेत्र में एकदम नई थीं। भारत में कम टीके का उत्पादन हुआ तो पहले चरण में उम्र साठ साल से ज्यादा रखी गई।
उसके बाद धीरे-धीरे 45 साल तक के लोगों को दायरे में लाया गया। उम्र सीमा घटी तो टीकाकरण का दायरा बढ़ा और नतीजा यह हुआ कि पहले जिन दो खुराकों के बीच चार हफ्ते का अंतर रखा गया था कई जगहों पर वह अंतर आठ हफ्तों तक का हो गया। देश का बड़ा तबका 18 से 40 के उम्र का है और महामारी की दूसरी लहर में वह ज्यादा और खतरनाक तरीके से चपेट में आने लगा तो इनके लिए भी टीकाकरण को खोलना जरूरी हो गया। राज्यों से भी संख्या बढ़ाने पर जोर दिया जाने लगा तो सबसे पहली नीति यह सूझी कि अपना खरीदो और लगाओ। 18 से ऊपर और 45 साल से नीचे की जनसंख्या राज्य सरकारों पर निर्भर छोड़ दी गई कि वह कैसे और किस दर पर टीका देगी।
बाजार तो मुनाफे के सिद्धांत पर चलता है तो आपदा को वो अपने लिए मुनाफे के अवसर के रूप में देखता है। संकट का समय उसके लिए मुनाफे का भी समय है। जब बाजार को लगा कि रेमडेसिविर की मांग ज्यादा नहीं है तो उसका उत्पादन बंद कर दिया। आॅक्सीजन के ज्यादा भंडारण से बाजार को क्या फायदा मिल सकता था भला। वो क्यों इसके ज्यादा उत्पादन, संग्रहण और वितरण का भार ढोता। अब हाल यह है कि जिस बीमारी में मरीज से दूरी जरूरी है उसमें पत्नी अपने मुंह से आॅक्सीजन देने की नाकाम कोशिश कर रही है। उसके पति का ठीक होना तो दूर अब उसके भी इस बीमारी की चपेट में आने का संकट है। आॅक्सीजन सिलेंडरों के इंतजाम में लगी भीड़ बीमारी की उस ऊंचाई को लेकर डरा रही है जो अभी आई भी नहीं है।
बाजार को संकट से फायदा होता है और ऐसे ही समय में सरकार की जरूरत होती है। इसलिए सरकार ऐसे समय में टीके को लेकर एक देश, एक कीमत के सिद्धांत पर चले। हालांकि विभिन्न क्षेत्रों से आलोचना के बाद केंद्र सरकार ने टीका निर्माता कंपनियों से इसकी कीमत कम करने की अपील की है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने भी टीके की अलग-अलग कीमतों पर केंद्र सरकार से सवाल किया है। अदालत का कहना है कि ड्रग कंट्रोलर एक्ट और पेटेंट एक्ट के तहत सरकार को इस पर नियंत्रण की शक्ति हासिल है। अभी भी वक्त है और हम टीकाकरण की कीमत पर बेहतर नीति लागू होने की उम्मीद कर सकते हैं।