मुश्किल से तीन हफ्ते पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान की अघोषित यात्रा की थी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ इस पर राजी हुए कि दोनों देशों को व्यापक द्विपक्षीय संवाद को लेकर बनी आपसी सहमति को आगे ले जाना चाहिए। एक साहसिक कदम के तौर पर इसकी सराहना हुई। यह साहसिक रहा हो या नहीं, असामान्य जरूर था, झोंक में उठाया गया कदम, जो यह भ्रम रचने में सहायक हुआ कि बातचीत के लिए अनुकूल माहौल यही है। विदेश सचिवों की बैठक के लिए पंद्रह जनवरी की तारीख मुकर्रर कर दी गई।
सात दिनों के भीतर, आतंकवादियों ने भारत में सरहद स्थितएक अहम ठिकाने पर हमला कर दिया, वायु सेना के पठानकोट के ठिकाने पर।
फरवरी, 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर गए थे और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ उन्होंने लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए। उस यात्रा के तीन महीने के भीतर, मई में, करगिल की लड़ाई शुरू हो गई।
राज्य के भीतर संरचनाएं
जिसने भी उसकी योजना बनाई हो और जिसने भी उसे अंजाम दिया हो, प्रधानमंत्री की लाहौर यात्रा के बाद न तो करगिल युद्ध की किसी को कल्पना रही होगी और न ही पठानकोट हमले की। भारतीय राज्य एकमेक सत्ता है। इसकी एक संरचना है, इसकी अपनी प्रभुता और नियंत्रण है, और अगर छोटे-मोटे विचलनों को छोड़ दें, तो भारतीय राज्य एकमेक सत्ता की तरह व्यवहार कर सकता है, और करता भी है। पाकिस्तान के साथ ऐसा नहीं है। पाकिस्तान में कम से कम तीन ऐसी संरचनाएं हैं, जिनके पास ‘राज्य’ की शक्ति है। ये हैं पाकिस्तान की संघीय सरकार, वहां की फौज और इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस यानी आइएसआइ। इन तीन शक्ति-संरचनाओं के ऊपर किसी का नियंत्रण नहीं है। फौज और आइएसआइ अपनी मर्जी चला सकते हैं, और अक्सर चलाते हैं।
कम से कम ये तीन संस्थान अपने अधिकार और अपनी वैधता देश के लिखित कानून से हासिल करते हैं। पर कुछ और भी शक्तियां हैं, जो लगता है, कानून की सीमा से परे हैं। उन्हें लक्षित करने के लिए हमने एक अजीब पद गढ़ रखा है- राज्येतर तत्त्व या राज्येतर खिलाड़ी। इनमें सबसे खतरनाक हैं लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद। वे खुलेआम विचरते हैं, संपत्तियों के मालिक हैं, पुरुषों और स्त्रियों की भर्ती करते हैं, भारत के खिलाफ जिहाद की धमकी देते हैं, बड़े गर्व से आतंकी हमलों का जिम्मा लेते हैं, और लगता है पाकिस्तान का कोई कानून उन पर लागू नहीं होता।
इस हकीकत को भारत को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। भारत का प्रधानमंत्री, जो देश के वास्तविक प्रतिनिधि के रूप में पूर्ण प्राधिकार और उत्तरदायित्व वहन करता है, सोच नहीं सकता कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को भी अपने मुल्क के सच्चे नुमाइंदे के तौर पर पूर्ण प्राधिकार प्राप्त है और उससे वैसी ही जवाबदेही की अपेक्षा की जा सकती है। लाल बहादुर शास्त्री से लेकर इंदिरा गांधी तक और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर डॉ मनमोहन सिंह तक, भारत के प्रधानमंत्रियों को इस सच का सामना करना पड़ा और उन्हें गहरी निराशा हुई। प्रधानमंत्री मोदी को इस हकीकत का अहसास दिसंबर और जनवरी में हुआ।
वार्ता के मसले पर आएं। ‘क्या भारत को पाकिस्तान से बात करनी चाहिए?’ यह आसान सवाल है। जवाब है, ‘हां, बेशक।’ वास्तविक और कठिन प्रश्न ये हैं: किस स्तर पर बात हो, किस मुद््दे पर हो, और कब? इन सवालों का जवाब अचानक एक झोंक में किसी जलसे में पहुंच जाने में नहीं ढूंढ़ा जा सकता। न ही किसी बहुपक्षीय सम्मेलन के दौरान अलग से की जाने वाली संक्षिप्त बातचीत में। मोदी ने वैसा ही करने की कोशिश की, और वायु सेना के पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमले के रूप में शर्मनाक नतीजा आया।
जारी है मुंबई
मुंबई में हुआ आतंकी हमला (26 से 29 नवंबर 2008) भारत की जमीन पर हुआ सबसे भयावह आतंकी हमला था। यह पक्के तौर पर साबित हो गया था कि दसों दहशगर्द पाकिस्तानी थे; वे प्रशिक्षित और हथियारबंद थे और पाकिस्तान से आए थे; उनके नियंत्रणकर्ता पाकिस्तान में थे; और पूरी कारगुजारी पाकिस्तान से संचालित हो रही थी। करगिल समेत हरेक मामले में यह हुआ कि पाकिस्तान ने यह मानने से इनकार कर दिया कि हमलावर पाकिस्तानी थे। दुनिया भर की राय ने पाकिस्तान को विवश किया कि वह कुछ कार्रवाई करे। उसने सतही जांच की, गिरफ्तारियां कीं, जो किसी नतीजे पर नहीं पहुंचीं, और जो अदालती कार्यवाही चली वह आंखों में धूल झोंकने वाली तथा न्याय का मखौल उड़ाने वाली थी। आठ साल बाद भी, न तो किसी को सजा हुई है न कोई दोषी ठहराया गया है।
नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा से होने वाली घुसपैठ की अनगिनत घटनाओं को छोड़ दें, तो पठानकोट मुंबई के बाद का सबसे बड़ा आतंकी हमला है जिसके तार पाकिस्तान से जुड़े हैं। पाकिस्तान के लिहाज से यह अपूर्व है कि उसने जांच शुरू करने का दावा किया है। इस बात की पूरी आशंका है कि कहीं इसका भी वही हश्र न हो जो मुंबई के मामले में तथाकथित जांच का हुआ था। तब? दरअसल, यह दुखद है कि सरकार में कोई भी यह याद करना नहीं चाहता कि पहले की जांच और अदालती कार्यवाही का कुछ भी नतीजा नहीं निकला और वह जान-बूझ कर दफना दी गई।
बातचीत किस पर, कब?
पाकिस्तान से बातचीत का कोई विकल्प नहीं है। सो, हमें हर हाल में पाकिस्तान से बात करनी चाहिए, पर हमें पहले उन विषयों पर बात करनी चाहिए जो हमारे लिए तात्कालिक और गहरी चिंता के विषय हैं- नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा का लिहाज न किया जाना, आतंकवाद, घुसपैठ, भारतीय जिहादियों को प्रच्छन्न समर्थन, आदि। हम उन मुद््दों पर भी बात कर सकते हैं जिनसे भारत के आर्थिक हितों का संवर्धन हो, जैसे व्यापार, पर्यटन और शिक्षाविदों तथा विद्वानों की आवाजाही। पर मेरे खयाल से, हमें एक सीमा तय करनी चाहिए: फिलहाल कश्मीर या सियाचिन या सर क्रीक पर कोई वार्ता नहीं। कोई हर्ज नहीं होगा अगर भारत इन मसलों पर अभी यथास्थिति बनाए रखे।
पाकिस्तान दुष्ट-राज्य नहीं है, पर यह दुष्ट तत्त्वों को संरक्षण देता और गुप्त रूप से उनकी मदद करता है। युद्ध कोई समाधान नहीं है, पर सख्त या दबावकारी कूटनीति जरूर है।
भारत ने विवश होकर विदेश सचिव स्तरीय वार्ता अ-निर्धारित तारीख तक के लिए स्थगित कर दी है। उस तारीख और अभी के बीच के समय का इस्तेमाल बातचीत के सभी पहलुओं की पड़ताल के लिए किया जाए- कब, कहां और किन विषयों पर बात होगी। हमें जोर देकर कहना चाहिए कि इनका निर्धारण हमारे चयन के मुताबिक हो, और यह हमारा हक है।
पी चिदंबरम का कॉलम दूसरी नजरः बातचीत हो या न हो
मुश्किल से तीन हफ्ते पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान की अघोषित यात्रा की थी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ इस पर राजी हुए....
Written by पी. चिदंबरम
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First published on: 17-01-2016 at 00:46 IST