बारह फरवरी 2016 को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संगठन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की दिल्ली पुलिस की गिरफ्तारी के बाद यह विश्वविद्यालय विश्व के अकादमिक जगत में सुर्खियों में आ गया है। जनेवि के पुराने छात्र विश्व के किसी भी देश में क्यों न बसे हों, वे अपनी ‘ज्ञान-माता’ (अल्मा मेटर) की सुरक्षा के लिए ऐसे चिंतित हो उठे हैं, जैसे कोई अपनी जननी या जन्मभूमि के लिए होता है। वैसे तो विश्व भर में अपनी ज्ञान माता प्रति आदर और प्रेम का भाव होता है, लेकिन मौजूदा स्थिति में जनेवि के प्रति पूर्व छात्रों की एकजुटता बेमिसाल है। इसकी वजह जानने के लिए इसके अतीत को समझना होगा।
इसकी स्थापना भारतीय संसद द्वारा 22 दिसंबर 1966 में की गई थी। पंडित जवाहरलाल नेहरू को और अधिक सम्मान देने के लिए विश्वविद्यालय का औपचारिक उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि ने 14 नवंबर 1969 को किया था। संयोगवश यह वर्ष महात्मा गांधी का जन्मशती वर्ष भी था। जनेवि के आदर्श के रूप में जवाहरलाल नेहरू के इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1947 में हीरक जयंती के अवसर पर कहे शब्द दर्ज हैं, ‘‘विश्वविद्यालय का उद्देश्य मानवता, सहनशीलता, तर्कशीलता, चिंतन प्रक्रिया और सत्य की खोज की भावना को स्थापित करना होता है। इसका उद्देश्य मानव जाति को निरंतर महत्तर लक्ष्य की ओर प्रेरित करना होता है। अगर विश्वविद्यालय अपना कर्तव्य ठीक से निभाएं तो यह देश और जनता के लिए अच्छा होगा।’’
जनेवि का मौजूदा परिसर बहुत बाद में विकसित हुआ, शुरू में सप्रू हाउस में अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थान और जनेवि पुराने परिसर के पास रूसी भाषा अध्ययन केंद्र को इसका हिस्सा बनाया गया और मंडी हाउस के नजदीक ‘गोमती गेस्ट हाउस’ को इसका छात्रावास। धीरे-धीरे नए कैंपस में छात्रावास बने, जिनकी संख्या अब चौदह से ज्यादा हो चुकी है और छात्रों की संख्या कुछ सौ से बढ़ कर करीब आठ हजार हो चुकी है। अध्ययन-अध्यापन का काम बहुत बरसों तक पुराने परिसर से चला। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्ययन-अध्यापन 1971 से शुरू हुआ।
मेरा भी इस विश्वविद्यालय में दाखिल होने का संघर्ष 1975 से शुरू हुआ, जब मैं आपातकाल में जेल में बंद था और मुझे इंटरव्यू के लिए टेलीग्राम आया था। अदालत ने मुझे जमानत देने से इनकार कर दिया और मेरा दाखिला स्थगित हो गया। जनवरी 1976 में रिहाई के बाद मैंने फिर कोशिश की, इस वर्ष चयन हो गया। लेकिन पुलिस रिपोर्ट से मेरा और विजय शंकर चौधरी का दाखिला रोका गया। इससे पहिले प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रकार मोहनराम का दाखिला 1975 में इस तरह रोका गया था। आपातकाल हटने के बाद तीनों रोके गए छात्रों को दाखिले के लिए बुलाया गया, लेकिन मैंने जुलाई 1977 में नए वर्ष से ही दाखिला लिया।
जनेवि की मानवीय रूप से संवेदनशील संस्कृति का अहसास मुझे पहले सेमेस्टर में ही हो गया था। नवंबर 1977 में आंध्र प्रदेश में भयंकर तूफान आया और बीस हजार के करीब लोग मारे गए, सैकड़ों गांव उजाड़ गए। तब जनेवि के छात्रों ने राहत कार्यों में पहल की। एक समिति बनाकर जनेवि के छात्रों को वहां भेजा गया। जनेवि के छात्र अपनी देशभक्ति का प्रमाण इस तरह की जनसेवा में देते रहे हैं या जनेवि के अंदर मजदूरों के हित में लड़कर, न कि चिल्ला चिल्ला कर और देशभक्ति के नाम पर लोगों से मारपीट कर।
जनेवि छात्र संघ और कर्मचारी संगठन की स्थापना 1971 से ही हो गई थी। छात्र संघ के प्रथम अध्यक्ष स्वर्गीय ओंकारनाथ शुक्ल बने। दूसरे अध्यक्ष वीसी कोशी बने, तीसरे अध्यक्ष सीपीएम नेता प्रकाश करात, आनंद कुमार को हरा कर बने थे। अगले वर्ष अब आनंद कुमार ने करात को हराया और अध्यक्ष बने। लेकिन कुछ ही महीनों बाद छात्रवृति लेकर अमेरिका अध्ययन के लिए चले गए और उनकी जगह राष्ट्रवादी कांगेसपार्टी से राज्य सभा सदस्य डीपी त्रिपाठी अध्यक्ष बने, जो आपातकाल के दौरान जेल में रहे और इस बीच छात्र संघ चुनाव भी नहीं हुआ। आपातकाल हटने के बाद अप्रैल 1977 में सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी छात्र संघ अध्यक्ष चुने गए। आगे चलकर 1977 में नियमित चुनाव में वे दोबारा अध्यक्ष बने।
जनेवि के प्रथम उप-कुलपति जी पार्थसारथी नियुक्त हुए थे, जिन्होंने इसे जनतांत्रिक रूप देने में बड़ी भूमिका निभाई। जनेवि में विश्वविख्यात विद्वानों-स्वर्गीय कृष्णा भारद्वाज, अमित भादुड़ी, रोमिला थापर, बिपन चंद्र, एस गोपाल, बिमल प्रसाद, मुनिस रजा , प्रोफेसर जीएस भल्ला आदि को भी उन्होंने ही जनेवि में आमंत्रित किया था। जनेवि में शुरू से ही ‘आलोचनात्मक चिंतन’ का माहौल बना, जहां पर छात्र और अध्यापक एक दूसरे से संवाद में रहते थे न कि एकतरफा आदेश मानने वाले। जो छात्र संगठन शुरू में सक्रिय रहे उनमें एसएफआई और फ्री थिंकर्स के साथ एआईएसएफ (जनेवि छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार इसी के सदस्य हंै) और समाजवादी युवजन सभा शामिल रहीं। एआईएसएफ ने जनेवि स्थापना के बाद पहली बार छात्र संघ अध्यक्ष का पद कन्हैया कुमार के रूप में जीता है। जनेवि छात्र संघ के शुरूआती दौर में सबसे ज्यादा अध्यक्ष एसएफआई हुए और हाल के वर्षों में आइसा से। कई बार फ्री थिंकर्स जीते तो कुछ बार समाजवादी युवजन सभा, एनएसयूआई भी जीती। कई बार आजाद रूप में ज्यादातर वामपंथी छात्र भी जीते। एबीवीपी को भी अध्यक्ष पद एक बार मिला।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर पहला संकट आपातकाल के दौरान आया, जब संजय गांधी की तूती बोलती थी और खुद मेनका गांधी यहां की छात्र थीं। उस वक्त के एसएफआई कार्यकर्ता और अब प्रख्यात वैज्ञानिक प्रवीर पुरकायस्थ को परिसर डरा-धमकाकर उठाया गया था। इसके बावजूद जनेवि के भीतर छात्रों और अध्यापकों ने तमाम तरीके से आपातकाल का प्रतिरोध जारी रखा था। आपातकाल हटने के बाद तब के उप-कुलपति बीडी नागचौधरी के खिलाफ और कुलपति इंदिरा गांधी को हटाने का संघर्ष जनेवि छात्र संघ अध्यक्ष सीताराम येचुरी की अगुआई में चला और दोनों ने ही इस्तीफा दिया था। उस वक्त का 5 सितंबर 1977 का सीताराम येचुरी का इंदिरा गांधी को स्मरण पत्र देने का ऐतिहासिक चित्र इन दिनों सामने आया है। कुछ समय के लिए पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय केआर नारायणन यहां उप-कुलपति रहे, जो अपनी शालीनता और छात्रों के प्रति संवेदनशीलता के लिए जाने जाते थे।
इस विश्वविद्यालय के राजनीतिक माहौल की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि यहां राजनीति हवाई और खाली-पीली भाषणों से नहीं चलती। जनेवि छात्र संघ चुनाव के दौरान डिनर के बाद छात्रावासों में जो जबरदस्त भाषण और वाद-विवाद होते थे, उनमें मार्क्स और लेनिन के उद्धरणों की भरमार हो जाती थी। जयरस बानाजी जो ट्राट्स्कीकीवादी थे और प्रकाश करात-सीताराम येचुरी के बीच घंटों बहसें होती थीं और कई बार पूरी रात चलती थी। इन बहसों में छात्रों की भागीदारी ही इनको जानदार बनाती थी। इससे जाहिर है कि जनेवि के अकादमिक वातावरण में दूर गांव-देहात से आने वाले छात्रों की प्रतिभा किस तरह पल्लवित होती थी। जनेवि में दाखिले की प्रक्रिया में गरीब और पिछड़े वर्गों के छात्रों के लिए विशेष रियायतें रखी गई हैं और यहां करीब सभी छात्रों को छात्रवृत्ति मिलती है और फीस और छात्रावास के खर्चे नाममात्र हैं। देश का केवल यही एक विश्वविद्यालय है जहां छात्र बिना घर वालों पर आर्थिक बोझ डाले अपनी पढ़ाई पूरी करके अच्छी नौकरियां पाते रहे हैं।
जनेवि से पीएच-डी के बाद 2005 में मैं फिर जनेवि में प्रोफेसर रूप में लौटा और आते ही भगत सिंह जन्म शताब्दी कार्यक्रमों में व्यस्त हुआ, जनेवि में भगत सिंह पीठ की स्थापना कराई, जनेवि अध्यापक संघ अध्यक्ष रहा, अपने केंद्र का अध्यक्ष भी और सभी रूपों में जनेवि के छात्रों के निकट संपर्क में रहा। जनेवि के छात्र जीवन और अध्यापक जीवन, दोनों में मैंने देखा कि जनेवि के छात्र अपनी सभी राजनीतिक गतिविधियों के साथ भारत और विश्व में उच्च पदों की नौकरियां पाते रहे हैं। अगर नौकरियां के पाने संबंधी देश के पूरे विश्वविद्यालयों का कोई सर्वेक्षण हो तो पता चलेगा कि ये जनेवि के ही विद्यार्थी हैं, जिनको नौकरियों को हासिल करने का प्रतिशत सबसे ऊपर मिलेगा।
मौजूदा संदर्भ में जिस प्रकार से जनेवि के छात्रों पर देशद्रोह के आरोप लगाए गए हैं, उससे लगता है कि सरकार की मंशा इसे बदनाम करके इसकी अंतरराष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचाने की रही है। जिस तरह की घटना को आधार बना कर पूरे देश में शिक्षा क्षेत्र में संकट की स्थिति पैदा की गई है, वह बहुत संदेहास्पद है। ऐसा लगता है कि सरकार कुछ छात्र आंदोलनों से चिढ़ी हुई थी, जिसका बदला उसने विश्वविद्यालय में पुलिसिया कार्रवाई करके लिया। यह एक तरह से छात्रों और अध्यापकों को आतंकित करने का मामला था। इसके लिए जाली वीडियो तक का इस्तेमाल किया गया। पूरे विश्व में भारत सरकार की इतनी बदनामी हुई कि महान विद्वान नोम चोम्स्की और नोबल पुरस्कार विजेता ओरहान पामुक से लेकर अनेक विद्वानों ने भारत के प्रधानमंत्री तक से अपना रोष व्यक्त किया है।
विडंबना यह है कि हमारे देश के ज्ञान-विज्ञान विरोधी सरकार को इन रोष पत्रों की कोई परवाह नहीं है। केंद्र सरकार अगर सुब्रमण्यम स्वामी जैसे नेताओं की सलाह (जो जनेवि को बंद करवाने पर उतारू हैं और इसका नाम बदल कर नेताजी सुभाषचंद्र बोस पर रखने की बातें कर रहे हैं) पर चलेगी तो अपनी किरकिरी ही कराएगी। हो सकता है कि बल प्रयोग से सरकार कुछ समय तक लोगों को डराने-धमकाने में सफल हो जाए, लेकिन लेकिन जनेवि की जनतांत्रिक आत्मा को नष्ट नहीं कर पाएगी। ०
(लेखक जनेवि के पूर्वशिक्षक हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं।)