वेद-पुराणों में वर्णित श्राद्ध का भाव हमारे वास्तविक आचरण में उतर जाए तो सारा विश्व एक कुटुंब बन जाए। ऐसे में जरूरी है कि युगों से संचित जटिल बातों को त्यागते हुए हमें धार्मिक कृत्यों एवं उत्सवों के निहितार्थ को समझकर उनका सामाजिक प्रयोग करना चाहिए। कोई आप से पूछे कि आप कौन हैं? आपके दादा और उनके पिता कौन थे? किस वंश के हैं आप? कहां से आए थे आपके पुरखे? आप आज जहां खड़े हैं, वहां तक आपको पहुंचाने वाले पूर्वजों का ध्यान है आपको? ऐसे प्रश्न जब भी सुनते हैं तो हमारे मन में एक तड़प-सी होने लगती है कि भला वे कौन थे जिनकी विरासत आज हमें मिली हुई है। इन सवालों के जबाव ढूंढ़ते हैं तो हम अपने-आप को ऋणी पाते हैं उन पूर्वजों का, जिन्हें शायद हमने कभी देखा, छुआ या महसूस ही ना किया हो। आज की पीढ़ी का स्याह सच यह है कि उसे अपने पुरखों की विरासत का गौरव नहीं है। प्रतिवर्ष श्राद्ध के पखवाड़े में पुरखों की तिथि को याद कर उनका श्राद्ध निकालते हैं, फिर पूरे साल उन्हें भूले रहते हैं।

क्या है श्राद्ध?

कई दृष्टियों से श्राद्ध बड़ा व्यावहारिक महत्त्व रखता है। याज्ञवल्क्य स्मृति की ‘मिताक्षरा’ ने श्राद्ध को यूं परिभाषित किया है, ‘पितरों को उद्देश्य करके उनके कल्याण के लिए श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उनसे संबंधित द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।’ श्राद्ध नाम इसीलिए पड़ा कि इसका मूल स्रोत श्रद्धा है। केवल कर्मकांड के लिए नहीं बल्कि अपने पुरखों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए श्राद्ध हर साल आते हैं।

श्रद्धा के सोलह दिन

पितरों को पूजने का सर्वोत्तम समय है, भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन की अमावस्या तक के सोलह दिन। शास्त्रों का मत है कि पितरों की पूजा प्रतिदिन करनी चाहिए। हालांकि इन सोलह तिथियों की विशिष्टता के कारण इस पक्ष को ‘पितृपक्ष’ कहा जाता है। ज्योतिष के अनुसार इस समय भगवान सूर्य कन्या राशि में विचरण करते हैं, इस नाते इन्हें ‘कनागत’ भी कहा जाता है। समस्त पूर्वज अपने लोकों से अपने वंशजों को आशीर्वाद देने के लिए इन दिनों पृथ्वी पर विचरते हैं। अत: प्रत्येक व्यक्ति को अपने पुरखों को इस काल में याद करना चाहिए तथा श्राद्ध निकालना चाहिए।

श्राद्ध में खास

श्राद्ध में कुछ बातें महत्त्व की हैं, जैसे-कुतप वेला अर्थात दिन का आठवां मुहूर्त (मध्याह्न में लगभग 11:30 से 12:30 तक का समय)। श्राद्ध में आठ चीजों का ध्यान जरूरी है। मध्याह्न काल, शुद्ध व स्वच्छ पात्र, कंबल, चांदी, कुशा, तिल, गौ माता और दौहिता (कन्या का पुत्र), इन आठों का एक जगह इकट्ठे होना श्राद्ध में श्रेयस्कर है। किसी कारण से ये एकसाथ इकट्ठे न हो सकें तो भी दौहिता, मध्याह्न और काले तिल इन तीनों का उपयोग श्राद्ध में करना ही चाहिए।
समर्पण से करें तर्पण

श्राद्ध पूर्वजों के प्रति आंतरिक श्रद्धा और समर्पण का महाभाव है। ब्रह्मपुराण में श्राद्ध के बारे में लिखा है कि ‘अपने पुरखों को लक्ष्य करके जो दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।’ परंपरा बताती है कि पितरों के प्रति श्रद्धावनत होकर अनेक श्रेष्ठ वस्तुओं का दान देना ही श्राद्ध है। सीधी बात है, श्रद्धापूर्वक सविधि किए जाने वाले कर्म विशेष को श्राद्ध कहते हैं।

श्राद्ध की सनातन परंपरा

श्राद्ध हजारों साल पुरानी शास्त्रों में वर्णित परंपरा है। ब्रह्मपुराण कहता है, ‘देश, काल और पात्र को ध्यान में रखते हुए विधि अनुसार श्रद्धा से पितरों को उद्देश्य करके जो कुछ किसी धर्मनिष्ठ, शास्त्रज्ञ व पवित्र ब्राह्मण को दिया जाता है, वह श्राद्ध है।’ पुराणों में लिखा है कि श्राद्ध से केवल अपनी तथा अपने पितरों की ही संतृप्ति नहीं होती, अपितु जो व्यक्ति विधिपूर्वक धन व उपलब्ध साधनों के अनुसार श्राद्ध करता है, वह समस्त देवताओं से लेकर संसार के कीट-पतंग आदि जीवों को संतुष्ट करता है।

श्राद्ध एक, पितर अनेक

ऋषियों ने मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति को प्रकट किया गया है। संस्कृत में ‘पितृ’ शब्द का अर्थ है पिता। पितृ शब्द ‘पितर’ रूप में जाना जाता है। ‘ऋग्वेद’ में अपने पिता से पहले के तीन पूर्वजों को ‘पितृ’ कहा गया है। मानव के आरंभिक या सर्वप्राचीन पूर्वज, जिनसे आदिमानव पहले-पहल जब कभी पैदा हुए, वे सभी ‘पितृ’ कहलाते हैं। किसी भी व्यक्ति के शरीर के दाह संस्कार के बाद उसकी मृतात्मा को ‘वायव्य’ नामक दिव्य शरीर की प्राप्ति होती है। इस अप्राकृत दिव्य शरीर की प्राप्ति के बाद मृतात्मा ‘पितृलोक’ में जाती है। श्राद्ध केवल अपने पितरों की तृप्ति के लिए ही नहीं होता बल्कि वेद-पुराणों में वर्णित श्राद्ध से चराचर की तृप्ति होती है। जो मनुष्य अपने वैभव के अनुसार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह ब्रह्मा से लेकर तिनके तक को संतृप्त करता है। ऐसे में जरूरी है कि युगों से संचित जटिल बातों को त्यागते हुए हमें धार्मिक कृत्यों एवं उत्सवों के निहितार्थ को समझकर उनका सामाजिक प्रयोग करना चाहिए।