मैं जो बोला कहा कि ये आवाज
उसी खाना-खराब की सी है
-मीर तकी मीर
खेती कानून वापस हो चुके हैं लेकिन राजनीतिक जमीन पर किसान आंदोलन का गहरा असर अभी भी दिख रहा। किसी पार्टी को सत्ता मिलने के बाद उससे जुड़े जमीनी संगठन की राह आसान नहीं होती। सत्यपाल मलिक का राजनीतिक सफर जितने भी राजनीतिक दलों से गुजरा हो वो जमीन से जुड़े रहे हैं। वे उस संगठन की तरफ से सरकार को आगाह कर रहे हैं जिसका लक्ष्य कश्मीर में अनुच्छेद-370 के खात्मे का था। इतना बड़ा राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने वाले संगठन को दिल्ली से सटी जमीन पर आंदोलन की मार खानी पड़ी तो उसका सतर्क और विचलित होना स्वाभाविक है। मलिक के अंदाज-ए-आवाज को समझने की कोशिश करता बेबाक बोल।
सुना है शोर से हल होंगे
सारे मसअले एक दिन
सो हम आवाज को
आवाज से टकराते रहते हैं
-नोमान शौक
उत्तर प्रदेश सहित अन्य जगहों पर चुनाव होने वाले हैं। कृषि कानूनों को वापस ले लिया गया है। किसान नेताओं की आंदोलन को जिंदा रखने की आती आवाज समझ में आती है। लेकिन, सरकार से जुड़े सत्यपाल मलिक की आवाज वापसी को समझना भी जरूरी है। मलिक फिर से बोले हैं। सरकार के नेतृत्व के खिलाफ बोले हैं। तो क्या उनकी आवाज को सत्ताधारी सियासत से मुखालफत की आवाज मानी जाए? उन्हें सरकार के खिलाफ विरोध का चेहरा माना जाए? जाहिर सी बात है कि यह समीकरण उतना आसान नहीं है।
मलिक की आवाज को उन आवाजों में भी शुमार किया जा सकता है जो सरकार के साथ होकर ललकार रहे हैं। जो कह रहे हैं कि सब कुछ ठीक नहीं है। हम उन्हें सुब्रमण्यम स्वामी की पंक्ति में बिठाने की सुविधा ले सकते हैं। वे हमें वरुण गांधी की भी याद दिला रहे हैं। कोई यह भी कह सकता है कि मलिक साहब, आप सत्ता से इतने नाराज हैं तो साथ छोड़ क्यों नहीं देते। बाहर आइए और अपनी आवाज बुलंद कीजिए। आप तो किसी फौजी नौकरी के अनुशासन में नहीं हैं, पसंद नहीं आती तो छोड़ क्यों नहीं देते।
मलिक साहब के बारे में यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि वे अपनी राजनीति के शीर्ष पर हैं। कई दलों में रह चुके हैं और अब राज्यपाल जैसे पद पर रहने के बाद उनकी वैसी कोई राजनीतिक साख भी दांव पर नहीं है। यह तो वैसी सरकार है जहां से कई मंत्रियों को बिना एलान निकाल दिया गया और किसी ने सुई गिरने जैसी आवाज नहीं की। फिर मलिक परमाणु विस्फोट जैसी कानफोड़ू आवाज कैसे निकाल रहे हैं? क्या उन्हें भय नहीं है कि उन्हें उनके आलंकारिक पद से अलविदा किया जा सकता है।
मलिक अरुण शौरी जैसा कदम उठाएंगे या फिर उनका हश्र यशवंत सिन्हा जैसा होगा। या वे देर-सबेर मुरली मनोहर जोशी या लालकृष्ण आडवाणी जैसे मार्गदर्शक बनने के मार्ग पर ही मोह-माया तज कर चल देंगे? सत्ता के बीच रहते हुए बोलना अहम बात है। सत्यपाल मलिक लगातार बोल रहे हैं। वे अगर कुछ कह रहे हैं तो उनको जवाब भी चाहिए होगा। ध्यान दें तो सत्यपाल मलिक कोई सवाल कर ही नहीं रहे हैं। वे सिर्फ अपनी बात रख रहे हैं। हम राजनीतिक टिप्पणीकार इस आवाज पर प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक हैं। लेकिन सत्यपाल मलिक हड़बड़िया राजनीति करने वाले नेता नहीं हैं।
भले ही उनका राजनीतिक प्रशिक्षण संघ की जमीन पर नहीं हुआ है लेकिन वे जमीन से जुड़े नेता हैं। इस समय भाजपा में जमीन का मतलब है संघ। इसकी कोई तो वजह होगी कि मलिक के उदारवादी सुर के बावजूद हर बार उन्हें संघ के प्रतिनिधि आवाज के तौर पर ही देखने की सलाह दी जाती है।
हमने मलिक के बयान को लेकर ऊपर जितने भी कयास लगाए हैं वो उनकी जमीनी सियासत पर निर्मूल से नजर आते हैं। याद करें तो उन्होंने हाल-फिलहाल में जितनी बार भी बोला है, किसान आंदोलन को लेकर ही बोला है।
आजादी के बाद 2014 में भारत का राजनीतिक इतिहास बदलने वाली राजग सरकार को पहला बड़ा झटका किसान आंदोलन से ही लगा है। सारी दुनिया में खेती ही एक ऐसा क्षेत्र है जो मंदी से मुक्त रहा है। खेती की इस फायदेमंद जमीन को अंतरराष्ट्रीय बाजार अपने पक्ष में भुनाना चाहता है। कथित विकास या विनाश की सारी फसलें यहीं से उगनी हैं। आगे की सारी लड़ाई खेती को लेकर ही होनी है। लेकिन यह लड़ाई लोकतांत्रिक ढांचे में ही लोक लुभावन का कलेवर लगा कर होगी। मुख्यधारा की कोई भी सरकार खेती में बाजार के उभार से इनकार नहीं करेगी। हां, जनता से जुड़े जमीनी संगठनों को यह खतरा जरूर लगेगा कि ऐसा उनकी जमीनी राजनीति के लिए सही नहीं है।
राजग सरकार के लाए कृषि कानूनों ने संघ की जमीन को नुकसान पहुंचाया। एक तरह से कहा जाए तो 2014 तक भाजपा को लेकर जनमत की आस्था की जो अट्टालिका बनी थी इस कानून की वजह से उसके विध्वंस की नौबत आ गई। जमीन लोगों की भावनात्मक जड़ से जुड़ा मामला था। इस जड़ को जमीन से अलग करने की कोशिश का खमियाजा हुआ कि हरियाणा, पंजाब से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक में भाजपा नेता से लेकर संघ कार्यकर्ताओं को प्रवेश मिलना मुश्किल हो गया। खेती कानूनों में जमीन को बाजार के हवाले करने के मसले को ‘जमीन’ वाले इलाकों में अस्मिता पर लिया गया और इस सरकार के खिलाफ अभी तक का सबसे बड़ा हल्ला बोल हुआ।
सत्यपाल मलिक कल कोई भी राजनीतिक फैसला ले सकते हैं। लेकिन फिलहाल उनकी आवाज उस हताश जमीनी संगठन की है जिसकी जड़ खेती कानूनों की वापसी के बाद भी मजबूत नहीं हुई है। किसान आंदोलन इतना व्यापक था कि इसके असर को तुरंत खत्म नहीं किया जा सकता है। संघ से सवाल हो रहा है कि स्वदेशी का डब्बा गुल होने पर आप क्या करेंगे? सरकार से जुड़ा कोई न कोई प्रतिनिधि खेती कानूनों की वापसी का भुतहा एलान कर ही बैठता है। यह भी सच है कि इस भूत को भगाना नामुमकिन सा दिखता है। औद्योगिक क्रांति के बाद से बाजार ने ही दुनिया का मुस्तकबिल तय किया है। इतनी आसानी से तो बाजार हथियार डालेगा नहीं।
खेती कानून कब और कैसी शक्ल में लौटेंगे यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन संघ को अपनी जमीन पर लौटना ही है जो उसने लगभग सौ सालों की मेहनत से तैयार की है। अभी किसानी को लेकर विपक्ष की आवाज से टकराने के लिए तो कोई आवाज चाहिए। भरोसा बहाली के लिए तो कोई चेहरा चाहिए। सरकार बनने के बाद उससे जुड़े जनसंगठनों की राह आसान नहीं होती। जरूरत से ज्यादा लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस का तो पूरा संगठनात्मक ढांचा ही खत्म हो गया है। भाजपा तो आई ही प्रचंड बहुमत के नारे के साथ और सात साल में इतना इतराई कि जमीन से जुड़े लोगों की बातों पर तवज्जो देना बंद कर दिया। उसी का नतीजा है कि खेती कानूनों पर सरकार ने देर से सुना तो उसे दुरुस्त मानने से ही इनकार कर दिया गया।
सत्यपाल मलिक की एक अहम बात पर गौर किया जाए। वे कहते हैं कि हमने कश्मीर में अपना काम कर दिया (अनुच्छेद-370 का खात्मा)। वे किसानी के सवालों से जुड़े मंच पर कश्मीर की याद क्यों दिला रहे हैं? कश्मीर में अनुच्छेद-370 का खात्मा किसका एजंडा था। जिस संघ ने कश्मीर में अपने लक्ष्य का परचम लहराया वो अगर दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश में अपने झंडे को थोड़ा झुकते देख रहा है तो उसका चिंतित होना लाजिम है।
सत्ता और उससे जुड़े जमीनी लोगों का टकराव कोई नई बात नहीं है। यह टकराव संघ और भाजपा के लिए बेहतर भी साबित हो सकता है। राजनीति तो संभावनाओं की प्रयोगशाला है। मलिक के प्रयोग की इस परखनली से कौन सा राजनीतिक रसायन निकलता है, यह देखने की बात है।
