जाति आधारित भारतीय समाज में अनुसूचित जाति (एसएसी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) का उत्पीड़न आम बात है लेकिन पिछले कुछ समय से इसमें बढ़ोतरी हो रही है। बड़ी विडंबना ये है कि देश ने अभी हाल ही में दमित जातियों खासकर दलितों के उद्धार के प्रतीक और भारतीय संविधान के निर्माता बीआर आंबेडकर की 125वीं जयंति मनाई है। भारतीय संविधान की कई महत्वपूर्ण प्रावधानों में से एक है, छुआछूत को असंवैधानिक बनाया जाना। लेकिन इससे जाति व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा सका क्योंकि जाति व्यवस्था भारतीय समाज का “आधार” है। इसे खत्म करने का मतलब होगा “भारतीय समाज की बुनियाद” को खत्म करना।

भारत के नीति-निर्माताओं को शायद इस बात का अंदाजा था कि जाति व्यवस्था जारी रहेगी इसलिए उन्होंने “अफरमेटिव एक्शन” के सिद्धांत को अपनाया ताकि एससी और एसटी वर्ग के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर किया जा सके और उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाया जा सके। इसीलिए आजादी के बाद केंद्र में आने वाली सरकारों ने विकास और जनकल्याण की कई नीतियों और कार्यक्रमों की शुरुआत की। इनमें सबसे अहम जातिगत जनसंख्या के अनुपात में रोजगार, शिक्षा, केंद्रीय और प्रांतीय सदन में दिया गया आरक्षण है। इस
प्रावधान से एससी और एसटी समुदाय का उल्लेखनीय भौतिक विकास हुआ लेकिन उनके “सामाजिक स्तर” में उसी अनुपात में परिवर्तन नहीं आया। भारत की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका वंचितों के साथ होने वाले छुआछूत और जातिगत उत्पीड़न को रोकने में विफल रहे हैं।

इसे मैं थोड़ा विस्तार से समझाता हूं।

भारतीय कानून में एससी और एसटी के संग होने वालों अपराधों से जुड़े मुख्यतः दो कानून हैं। पहला, सिविल राइट्स प्रोटेक्शन एक्ट, 1955, जिसके तहत नागरिक अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े मामलों पर विचार किया जाता है। इस कानून के तहत मंदिर, रेस्तरां इत्यादि सार्वजनिक जगहों पर प्रवेश से रोक जैसे मामले दर्ज किए जाते हैं। दूसरा कानून है, एससी एंड एसीटी प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज (पीओए) एक्ट 1989। ये कानून ज्यादा सख्त है। इसके तहत विभिन्न तरह के उत्पीड़न के खिलाफ कानूनी सुरक्षा प्रदान की गई है। इसके तहत एससी और एसटी के उत्पीड़न
की जांच के लिए राज्य प्रशासन द्वारा अपनाई जाने वाली सुनिश्चित प्रक्रिया भी तय की गई है। इस कानून के तहत फास्ट ट्रैक अदालत बनाकर अभियुक्तों के मुकदमे की सुनवाई की भी व्यवस्था है।

आखिर ये उत्पीड़न क्या है और राज्य प्रशासन ऐसे मामलों से कैसे पेश आता है?

भारत सरकार के सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय की नेशनल क्राइम ब्यूरो 2014 के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गई सालाना रिपोर्ट के अनुसार साल 2013 में एससी और एसटी उत्पीड़न के सिविल राइट (सीआर) से जुड़े 609 मामले दर्ज किए गए जिनमें से 315 मामले महाराष्ट्र में और 152 मामले गुजरात में दर्ज किए गए। यानी कुल मामलों के 76 फीसदी मामले इन दो राज्यों में दर्ज हुए। दोनों राज्यों में कुल तीन लोगों को सजा हुई और 551 मामले अभी विचाराधीन हैं।

रिपोर्ट के अनुसार साल 2013 में दलित उत्पीड़न से जुड़े 39,408 मामले पीओए के तहत दर्ज हुए। साल 2014 में ऐसे मामलों की संख्या 19 फीसदी बढ़कर 47,064 हो गई। अगर एसटी की बात करें तो साल 2013 में पीओए के तहत अनुसूचित जनजातियों के उत्पीड़न से जुड़े 6,793 मामले दर्ज किए गए। साल 2014 में अनुसूचित जनजातियों से जुड़े ऐसे मामलों की संख्या 68 फीसदी की बढ़कर 11,451 हो गई।

एससी और एसटी उत्पीड़न से जुड़े मामलों में लूट, छिनैती, धमकी, फसद को नष्ट कर देना, घर जला देना, हत्या और बलात्कार जैसे मामले शामिल थे। रिपोर्ट के अनुसार एसएसी महिलाओं के बलात्कार के 1000 और एसटी महिलाओं के बलात्कार के 800 मामले दर्ज हुए थे।

तो इन मामलों की कानूनी स्थिति क्या है? मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 तक एसी-एसटी उत्पीड़न के कुल 1.19 लाख मामले दर्ज थे। सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश (28,000), बिहार (20,000), मध्य प्रदेश (13,576) और राजस्थान (12,800) में दर्ज थे। पूरे देश में एससी-एसटी उत्पीड़न के 63 फीसदी मामले इन चार राज्यों में दर्ज थे। प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य महाराष्ट्र में उत्पीड़न के 7,350 मामले, ओडिशा में 7,700, कर्नाटक में 6200 और तमिलनाडु में 5600 मामले दर्ज थे। एससी-एसटी उत्पीड़न से जुड़े सबसे कम मामले पंजाब और हिमाचल प्रदेश में दर्ज थे।

इन मामलों की अदालती सुनवाई की स्थिति और भी खराब है। साल 2014 तक दर्ज 1.19 लाख मामलों में केवल 4,716 अभियुक्तों को सजा हुई, जबकि 11,900 बरी हो गए। मध्य प्रदेश में सजा पाने की दर 11 फीसदी, यूपी में 6.5 फीसदी, राजस्थान में 5.8 फीसदी, गुजरात में 0.5 फीसदी, कर्नाटक में 0.6 फीसदी और महाराष्ट्र में 0.8 फीसदी थी। साल 2014 तक कुल दर्ज मामलों से 85 फीसदी मामले (1.02 लाख) विचाराधीन थे। इसमें से 64 फीसदी मामले चार राज्यों यूपी (25,000), राजस्थान (11,000), एमपी (10,000) और बिहार (18,800) में विचाराधीन हैं।

न्यायिक और प्रशासकीय तंत्र की अपर्याप्तता इस चिंताजनक स्थिति के पीछे एक बड़ा कारण है। मसलन, देश के 406 जिलों के लिए केवल 193 फास्ट ट्रैक कोर्ट हैं। इसके अलावा राज्य प्रशासन की उपेक्षा, अदालती सुनवाई में जानबूझकर किया गया पक्षपात, सुबूतों का अभाव या उन्हें नष्ट किया जाना, सामाजिक और राजनीतिक ‘हानि-लाभ’ का दबाव और समाज का उदासीन रवैया भी एससी-एसटी के उत्पीड़न के मामलों के अदालतों में लटके रहने का बड़ा कारण हैं।

केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद गौरक्षकों जैसे कई ‘नॉन-स्टेट एक्टर’ (जो वास्तव में समाज के लंपट तत्व हैं) मनुष्य से ज्यादा मृत गाय को महत्व देते प्रतीत हो रहे हैं। ऐसे तत्व कानून को अपने हाथ में लेने से भी गुरेज नहीं कर रहे। गुजरात के उना में हुआ हादसा इसका ज्वलंत उदाहरण है। अगर इन गऊ रक्षकों को गाय की इतनी ही चिंता है तो वो खुद गाय की खाल क्यों नहीं उतारते? यूपी बीजेपी के पूर्व उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह द्वारा बसपा प्रमुख मायावती पर की गई अश्लील टिप्पणी भी गंभीर उत्पीड़न है जिसके लिए उसपर तत्काल पीओए के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए।

वंचित तबके के उत्पीड़न और अपमान को बिल्कुल नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। देश में कुल 20 करोड़ एससी और 10 करोड़ एसटी हैं। देश के दूसरे तबकों की तरह उन्हें भी समान नागरिक अधिकार प्राप्त हैं। देश के विकास में उनका भारी योगदान रहा है। गुजरात के उना के बाद हो रहा विरोध इस समुदाय के संग न रुकने वाले सतत उत्पीड़न का परिणाम है। आंबेडकर राजनीतिक लोकतंत्र का आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र में बदलना चाहते थे लेकिन देश सामाजिक अराजकता की तरफ बढ़ता दिख रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर सामाजिक स्थिरता को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें इन मुद्दों पर अपनी जगजाहिर चुप्पी तत्काल तोड़नी चाहिए।

लेखक पूर्व राज्य सभा सांसद और योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं।