अब यह लगभग स्पष्ट हो गया है कि उत्तर प्रदेश में मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी समाजवादी पार्टी के बीच ही होगा। भाजपा के अपने पुराने सहयोगियों में से ओमप्रकाश राजभर की सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी उससे अलग हुई है। अनुप्रिया पटेल की अपना दल और संजय निषाद की निर्बल भारतीय शोषित हमारा आम दल जैसी पार्टियां यह चुनाव भी भाजपा के साथ मिलकर लड़ेंगी।
राजभर इस बार अखिलेश यादव के पाले में चले गए। इसी तरह एक और छोटी पार्टी महान दल ने भी सपा से हाथ मिलाया है। पर जयंत चैधरी के रालोद के साथ अभी तक सीटों का बंटवारा नहीं होने के कारण सपा और रालोद गठबंधन को लेकर अटकलें लग रही हैं। हालांकि मंगलवार को अखिलेश और जयंत की मुलाकात हुई है।
राजनीति में गठबंधन बड़े दल तभी करते हैं जब उन्हें अपने बूते बहुमत नहीं ला पाने का पक्का विश्वास न हो। जहां तक भाजपा का सवाल है, पिछली बार उसके खाते में 403 में से 312 सीटें आई थी। अपना दल व ओमप्रकाश राजभर जैसे सहयोगियों को मिलाकर तो यह गठबंधन 325 सीटों से भी आगे निकल गया था। इसके बावजूद भाजपा ने अपने इन दोनों पुराने सहयोगियों से फिर तालमेल किया है। यानी पिछले चुनाव जैसे परिणाम के दोहराव का उसे पक्का भरोसा नहीं होगा।
दुविधा में कांगे्रस और बहुजन समाज पार्टी हैं। दुविधा ओवैसी की एमआइएम और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को भी जरूर होगी। शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी तो व्याकुल है ही। चाचा शिवपाल कब से सार्वजनिक तौर पर कह रहे हैं कि वे भतीेजे शिवपाल के साथ ही रहना चाहते हैं। अपनी पार्टी का सपा में विलय भी कर सकते हैं और अखिलेश चाहें तो सीटों का बंटवारा भी। लेकिन इस बार भतीजा उन्हें कतई भाव नहीं दे रहा। दे भी क्यों? चाचा पर भाजपा के साथ अंदरखाने मिलीभगत रखने का शक जो है। मुलायम सिंह यादव के जन्मदिवस पर लोगों को उम्मीद थी कि चाचा भतीजा एक साथ नजर आएंगे। पर ऐसा हो नहीं पाया। मुलायम सिंह यादव इस समय पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं।
चाचा भतीजे के बीच अविश्वास की खाई और शिवपाल यादव की ज्यादा सीटों की चाहत इस गठबंधन में सबसे बड़ी बाधा हैं। अखिलेश को यह डर भी सता रहा है कि अगर त्रिशंकु विधानसभा हुई तो चाचा अपने सियासी लाभ के लिए उनका साथ छोड़ सकते हैं। पिछली दफा सपा का कांगे्रस और रालोद से गठबंधन था। बसपा अकेले लड़ी थी। पर भाजपा की आंधी में न सपा गठबंधन कोई चमत्कार कर पाया और न बसपा ही अच्छा प्रदर्शन कर सकी। सपा तो सत्तारूढ़ पार्टी होने के बावजूद 47 सीटों पर सिमट गई थी।
उत्तर प्रदेश में पांच साल की सियासी सक्रियता को कसौटी मानें तो विरोधी दलों में सबसे प्रभावी भूमिका कांगे्रस ने अदा की। कोरोना की महामारी में भी उसने लोगों की पीड़ा को देखते हुए संघर्ष किया। तो भी संगठन की कमजोरी के कारण यह पार्टी विधानसभा चुनाव में अभी तक हाशिए पर ही अटकी है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भी उसे गंभीरता से नहीं ले रहे। पिछली बार उसे अपना दल से भी कम सात सीटें मिली थी। इस बार लोग इतनी सीटें भी मिलने की भविष्यवाणी नहीं कर रहे। लखीमपुर आंदोलन हो या फिरोजाबाद की घटना प्रियंका गांधी ने पूरी दमदारी दिखाई। महिलाओं के लिए 40 फीसद टिकटों का ऐलान कर उन्होंने महिलाओं में पैठ बनाने का अनूठा पैंतरा भी चला है। पर मुश्किल यह है कि उसे भी वैतरणी पार करने के लिए सहारा चाहिए।
अखिलेश यादव ने इस बार कांगे्रस से ऐसा सलूक किया है मानो वह अछूत हो। इसीलिए प्रियंका गांधी भी उनसे नाराज बताई जा रही हैं। मायावती की मां के निधन के बाद प्रियंका के उनके घर संवेदना जताने के लिए जाने के भी राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। इससे पहले हवाई अड्डे पर प्रियंका और जयंत की मुलाकात हुई तो कयास लगने शुरू हो गए कि कांगे्रस और बसपा का भी गठबंधन हो सकता है। जिसमें जयंत चौधरी आ गए तो पश्चिमी यूपी में समीकरण बदल जाएंगे। तब अखिलेश यादव के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी।
राजनीति में संभावनाओं को नकारा भी नहीं जा सकता। ऊपर से बसपा इस बार बेहद कमजोर दिख रही है। दलितों के जाटव वर्ग में ही उसका असली जनाधार रहा है। पर पिछले चुनाव में 20 फीसद वोट पाकर भी बसपा बीस सीटें नहीं जीत पाई थी। इस बार तो उसके वोट भी घटने की संभावनाएं जताई जा रही हैं।
रालोद और सपा के बीच तालमेल को तय माना जा रहा है पर सीटों का बंटवारा नहीं हो पाने से अभी अनिश्चितता बरकरार है। अंदरूनी सूत्र बता रहे हैं कि अखिलेश यादव जाट नेता को करीब 30 सीटें देने को तैयार हैं। पर चार-छह सीटें ऐसी हैं, जिन पर दोनों का दावा है। ऐसे में इस संभावना को भी नकारा नहीं जा रहा कि ऐसी सीटें बंटवारे में रालोद को मिल जाएंगी पर उम्मीदवार सपा के होंगे। सीटों के बंटवारे के बाद अखिलेश और जयंत साझा चुनावी रैलियां कर पाएंगे।
चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी और ओवैसी की एमआइएम अभी दोराहे पर खड़ी हैं। आजाद की बीच में सपा से तालमेल की खबरें आई थी। शुरू में तो ओवैसी, शिवपाल यादव, केजरीवाल और राजभर के साथ चंद्रशेखर आजाद के मोर्चा बनाकर मैदान में कूदने की भी अटकलें लगी थी। पर इस गठबंधन का गुब्बारा आकार लेने से पहले ही फूट गया। जैसे-जैसे चुनाव का रंग जोर पकड़ रहा है, अखिलेश यादव का आत्मविश्वास बढ़ रहा है।
मायावती अभी तक भी मैदान में नहीं उतरी हैं। ब्राह्मण सम्मेलनों को खास रिस्पांस नहीं मिला तो सतीश मिश्र भी बैठ गए। सत्ता में होने, अकूत संसाधनों और मजबूत संगठन के बावजूद भाजपा की चिंता बढ़ रही है। उसकी सभाओं में ज्यादा भीड़ नहीं जुट रही। ऊपर से महंगाई भी बड़ा चुनावी मुद्दा बन गई है। तीनों कृषि कानूनों की वापसी के फैसले को हवा का रुख विपक्ष अपने पक्ष में होने और भाजपा के प्रतिकूल होने के तौर पर मान रहा है।
