इसके बाद एक बार फिर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तेज हो गया है। कुछ दिनों पहले सीबीआइ ने अपनी जांच रपट में कहा था कि दिल्ली सरकार ने अपने अधीन आने वाले सभी विभागों, स्वायत्तशासी निकायों, संस्थानों और संस्थाओं के कामकाज में गड़बड़ियों की जानकारी जुटाने के नाम पर जो ‘फीडबैक यूनिट’ गठित की थी, उसके जरिए जासूसी करने का प्रयास किया गया।
इस संबंध में सीबीआइ ने उपराज्यपाल से मनीष सिसोदिया के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत मांगी थी। उपराज्यपाल ने वह मांग मान ली। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी मुकदमा चलाने की इजाजत दे दी। इस फैसले से आहत मनीष सिसोदिया ने खुद ट्वीट कर सीधे केंद्र सरकार और भाजपा पर हमला बोला। भाजपा की दिल्ली इकाई इस फैसले से उत्साहित है और वह सिसोदिया की गिरफ्तारी की मांग करने लगी है।
दोनों दलों के बीच इस तरह के राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और एक-दूसरे को छकाने की कोशिश कोई नई नहीं है। जब भी अनियमितता का कोई मामला सामने आता है, इसी तरह आम आदमी पार्टी के नेता केंद्र सरकार, उपराज्यपाल और भाजपा पर हमले शुरू कर देते हैं। इससे आम लोगों में भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है कि वास्तव में मामला अनियमितता का है भी या नहीं।
नई आबकारी नीति के तहत घोटालों के आरोप लगे और जांच एजंसी ने उससे संबंधित तथ्य खंगालने शुरू किए, उससे जुड़े लोगों की गिरफ्तारियां शुरू हुईं, तब भी वह मामला दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल और केंद्र सरकार बना दिया गया। दिल्ली सरकार कहती रही कि उसमें कोई अनियमितता नहीं हुई, सब कुछ नियमों के तहत हुआ। मगर जांच एजंसी उसमें भ्रष्टाचार के तार तलाशती रही।
उसी तरह विभिन्न विभागों के कामकाज पर नजर रखने के बहाने जासूसी कराने के आरोप को लेकर गर्दोगुबार उड़ाया जा रहा है। पर तथ्य यह है कि करीब आठ साल पहले दिल्ली सरकार ने अपने अधीन आने वाले विभिन्न विभागों, संस्थानों और संस्थाओं में अनियमितताएं दूर करने के नाम पर एक ‘फीडबैक यूनिट’ का गठन किया था। उसके लिए उपराज्यपाल से मंजूरी नहीं ली गई थी।
हालांकि बाद में उपराज्यपाल नजीब जंग ने उस इकाई की वैधता पर सवाल उठाते हुए उसे खारिज कर दिया था। मगर जितने दिन भी उस इकाई ने काम किया, उसमें बहुत सारे ऐसे तथ्य इकट्ठा किए, जिसे जासूसी कहा जा रहा है। उसमें कई राजनेताओं के खिलाफ भी तथ्य इकट्ठा किए गए थे। उस इकाई की निगरानी मनीष सिसोदिया के जिम्मे थी।
इस मामले में वैधानिक सवाल यह है कि जब भ्रष्टाचार पर नजर रखने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक विभाग है, ऐसी शिकायतों पर कार्रवाई करने के लिए पुलिस है और सतर्कता आयोग है, जिन्हें संवैधानिक मान्यता है, फिर दिल्ली सरकार को अलग से एक इकाई गठित करने की क्या जरूरत पड़ी। जाहिर है, उस इकाई के गठन के बाद भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने से जुड़े तमाम महकमों का कामकाज बाधित हुआ, उनके अधिकार क्षेत्र में नाहक दखल शुरू हुई और सरकार को इसके लिए अतिरिक्त धन का प्रावधान करना पड़ा।
आखिर पारदर्शी प्रशासन का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी सरकार को इस तरह कानूनी पहलुओं की अनदेखी करने की जरूरत क्यों महसूस हुई। इस पर उससे सवाल पूछा जाना तो बनता है। इसलिए अब जब सीबीआइ इससे जुड़े सवाल पूछेगी, तो अपेक्षा की जाती है कि उसका राजनीतिकरण करने के बजाय पारदर्शिता बरतते हुए माकूल जवाब दिए जाएं।