एक तरफ दुनिया जलवायु संकट का सामना कर रही है, तो दूसरी तरफ विकसित देश अपने दायित्व से मुकरते दिख रहे हैं। हैरत है कि वे विकासशील देशों पर जिम्मेदारी थोपते हैं, वहीं वे सर्वाधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी करते हैं। इस तरह विश्व का जलवायु संकट दूर करने का संकल्प हर बार अधूरा रह जाता है। यही वजह है कि दुनिया का एक बड़ा हिस्सा जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान जिस तरह बढ़ रहा है, वह केवल गरीब देशों की समस्या नहीं हैं। इसकी आंच विकसित देशों तक भी पहुंच रही है। बावजूद इसके बाकू में आयोजित ‘सीओपी-29’ शिखर सम्मेलन के पहले सप्ताह का कोई हासिल नहीं है, तो यह चिंता की बात है।
इस पर भारत सहित विकासशील देशों की निराशा स्वाभाविक है। यह समझना मुश्किल है कि इस मुद्दे पर न्यायसंगत जिम्मेदारी लेने के लिए बड़े देश क्यों तैयार नहीं है? सभी जानते हैं कि वित्तीय और प्रौद्योगिकी की मदद के बिना विकासशील देश अपने बूते जलवायु संकट से नहीं निपट सकते। जिन देशों के पास सर्वाधिक क्षमता और संसाधन है, उनकी बेरुखी डराती है। आज जरूरत इस बात की है कि चरम जलवायु परिवर्तन की ओर बढ़ रही दुनिया जल और पर्यावरण को बचाने के लिए एकजुट हो।
विकसित और विकासशील देशों में किसी मुद्दे पर नहीं है एकराय
जलवायु सम्मेलन यानी ‘सीओपी-29’ का किसी ठोस और नतीजा देने वाले निष्कर्ष की ओर न बढ़ना यह दर्शाता है कि विकसित और विकासशील देशों में किसी मुद्दे पर अभी एकराय नहीं है। गंभीरता से चर्चा न होने पर भारत ने सवाल उठाया है। इसके समांतर डोनाल्ड ट्रंप की सत्ता में दोबारा वापसी के बाद आशंका जताई जा रही है कि अमेरिका जलवायु संकट से निपटने की अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे हट सकता है।
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दरअसल, ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन को ही धोखा करार दिया है और कहा है कि वह पेरिस समझौते से अमेरिका को बाहर निकालेंगे। अगर अमेरिका इस रुख पर कायम रहता है, तो इस सम्मेलन का क्या औचित्य रहेगा? बड़े देश ही पल्ला झाड़ेंगे और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में मनमानी भी करेंगे, तो विकासशील देशों के लिए यह कैसे संभव है कि वे अपने दम पर अगली पीढ़ी को स्वच्छ और सुरिक्षत दुनिया दे पाएं!