देश के विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया में बूथ स्तरीय अधिकारियों पर काम का दबाव अब कुछ कम होने की उम्मीद जताई जा रही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन अधिकारियों के कामकाज के घंटों में कमी लाने के लिए राज्य सरकारों को अतिरिक्त कर्मियों की तैनाती करने का निर्देश दिया है।

दरअसल, पुनरीक्षण कार्य में लगे अधिकारी साथ में अपनी सामान्य जिम्मेदारियों का भी निर्वहन कर रहे हैं और काम का बोझ बढ़ जाने के कारण उन्हें कई तरह की परेशानियां का सामना करना पड़ रहा है। मगर सवाल है कि इस समस्या के समाधान के लिए आखिर शीर्ष अदालत को निर्देश क्यों जारी करने पड़े? निर्वाचन आयोग और राज्य सरकारों को इस मामले में अपनी जिम्मेदारी का एहसास क्यों नहीं हुआ?

आए दिन बूथ स्तरीय अधिकारियों की मौत, आत्महत्या, स्वास्थ्य बिगड़ने या नौकरी छोड़ने की खबरें आ रही हैं। मगर न तो निर्वाचन आयोग और न ही राज्य सरकारों ने गंभीरता दिखाते हुए कोई प्रभावी कदम उठाने की जरूरत समझी।

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विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया को लेकर सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि निर्वाचन आयोग जल्दबाजी में इस कार्य को क्यों पूरा करना चाहता है। क्या आयोग को इस बात का भान नहीं था कि इतने कम समय में इस कार्य को पूरी पारदर्शिता और सटीकता के साथ संपन्न कराने में व्यावहारिक रूप से परेशानियां खड़ी हो सकती हैं।

पुनरीक्षण में लगे कर्मी और विपक्षी दल कई दिनों से समय सीमा बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। इस पर निर्वाचन आयोग ने पहल तो की, लेकिन सिर्फ एक सप्ताह का ही समय बढ़ाया।

असल में देखा जाए तो पुनरीक्षण प्रक्रिया की प्राथमिक जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग की ही है। अगर इस कार्य में कर्मियों की कमी महसूस की जा रही है, तो आयोग खुद राज्यों को अतिरिक्त कर्मी तैनात करने को कह सकता था और शीर्ष अदालत को भी इस तरह का निर्देश जारी करने की जरूरत नहीं पड़ती। अब देखना यह है कि राज्य सरकारें किस स्तर पर अतिरिक्त कर्मियों की व्यवस्था कर पाती हैं, क्योंकि राज्यों के पास अपने सामान्य कामकाज को समय पर निपटाने की भी चुनौती है।