थोक महंगाई दर ने एक बार फिर झटका दिया है। महंगाई पर काबू पाना पहले से कठिन बना हुआ है। थोक महंगाई के ताजा आंकड़े ने आर्थिक प्रबंधकों की बेचैनी बढ़ा दी है। इससे उत्पादकों पर दबाव बढ़ा है। यह कम चिंता की बात नहीं है कि तमाम प्रयासों के बावजूद डालर के मुकाबले रुपया लगातार गिर रहा है। वहीं उपभोक्ताओं की क्रयशक्ति पहले से कहीं अधिक कम हो गई है। लिहाजा, बाजारों में वैसी रौनक नहीं, जैसी अपेक्षा व्यवसायी करते रहे हैं। ऐसे में महंगाई दर का बढ़ना अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता।

पिछले वर्ष अप्रैल से लेकर दिसंबर तक के आंकड़ों से पता चलता है कि महंगाई दबे पांव बढ़ती चली गई है। खाने-पीने की चीजों के दामों में थोड़ी-बहुत नरमी बीच-बीच में जरूर दिखती रही, लेकिन ईंधन, विनिर्मित उत्पाद और गैर-खाद्य वस्तुओं के मूल्य जिस तरह बढ़े हैं, उसे थामा नहीं जा सका। काफी समय से उत्पादन क्षेत्र की रफ्तार सुस्त बने रहने का असर है कि थोक महंगाई बढ़ी है। थोक भाव अधिक समय तक ऊंचा बने रहने से उत्पादों की बढ़ी कीमतों का बोझ उपभोक्ताओं पर पड़ेगा।

खुदरा महंगाई में मामूली गिरावट

खुदरा महंगाई में मामूली गिरावट से भी राहत मिलने की उम्मीद कम है। हालांकि यह चार महीने के निचले स्तर पर है। बीते वर्ष नवंबर में यह 5.48 फीसद थी, जो दिसंबर में 5.22 फीसद पर आ गई। जबकि यही दर अगस्त में 3.65 फीसद थी। इस लिहाज से ताजा गिरावट को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। इन सभी आंकड़ों के आधार पर मौद्रिक नीति समिति नीतिगत दरें कम करने की स्थिति में आएगी, इसमें संदेह है। बावजूद इसके, मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि समिति की अगली बैठक में काफी दबाव रहेगा।

विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार आ रही गिरावट, कमजोर हो रहा निवेशकों का भरोसा

आशंका है कि थोक महंगाई बढ़ने का असर कहीं खुदरा महंगाई पर न दिखाई दे। इसमें कोई दो मत नहीं कि सरकार के ताजा आंकड़े से हर उपभोक्ता की चिंता बढ़ गई है, जो अभी बहुत मुश्किल से घर चला रहा है। फिलहाल महंगाई में स्थिरता की उम्मीद तो नहीं नजर आ रही, पर इसे सहनशील स्तर पर लाने का प्रयास होना चाहिए।