मुसलिम महिलाओं के हक की बाबत देश के एक प्रमुख मुसलिम संगठन जमात-ए-इस्लामी हिंद ने जो रुख जाहिर की है वह स्वागत-योग्य है। जमात ने कहा है कि भारत की मुसलिम महिलाओं को उनके पूरे हक नहीं मिल पाए हैं; यह सुनिश्चित किया जाए कि उन्हें यह हासिल हो। यों तो हमारा संविधान जन्म या लैंगिक आधार पर किसी तरह के भेदभाव की इजाजत नहीं देता। पर हम जानते हैं कि हकीकत क्या है। अगर जन्म के आधार पर भेदभाव का व्यवहार न रहता तो न दलितों की अलग से कोई समस्या होती न स्त्रियों की।
इसलिए समानता का संवैधानिक प्रावधान पर्याप्त नहीं है, उसके अनुरूप व्यवहार भी जरूरी है। यों स्त्रियों की दशा सभी समुदायों में शोचनीय है, पर मुसलिम महिलाओं के लिए संगठित होना, अपनी आवाज उठाना कहीं ज्यादा मुश्किल रहा है। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो उनकी इस स्थिति को धार्मिक रूढ़िवादिता से जोड़ कर देखते हैं और इस तरह इस्लाम की एक गैर-प्रगतिशील तस्वीर पेश करते हैं।
पश्चिम में तो मुसलिम महिला की एक रूढ़ छवि ही प्रचलित है, परदे में रहने वाली, खामोश, अवसरों तथा अधिकारों से वंचित। लेकिन क्या इस धारणा को सब जगह लागू किया जा सकता है? इस्लाम बहुत-से देशों में फैला है, बहुत-सी संस्कृतियों से इसका नाता है। इसलिए इस्लाम के आशय भी विविध हैं और मुसलिम महिला की स्थितियां भी। लिहाजा, अगर मुसलिम महिलाओं के सशक्तीकरण के प्रयास संजीदगी से हों, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि मजहब उसमें आड़े नहीं आएगा।
जमात-ए-इस्लामी हिंद के रुख से भी इस उम्मीद को बल मिला है। राजस्थान में दो मुसलिम महिलाओं के काजी बनने का दावा करने पर उठे विवाद के मद्देनजर जमात ने कहा कि यह विवाद गैर-जरूरी है, क्योंकि निकाह के लिए किसी काजी की जरूरत नहीं है; दो गवाहों की मौजूदगी में निकाह हो सकता है, ये गवाह महिलाएं भी हो सकती हैं। गौरतलब है कि हाल में जयपुर की दो मुसलिम महिलओं ने दावा किया कि दोनों ने मुंबई स्थित मदरसे दारूल उलूम निसवां से दो साल की पढ़ाई की है और अब वे राजस्थान की पहली महिला काजी बन गई हैं। इस पर कुछ उलेमाओं ने विवाद खड़ा कर दिया, यह कहते हुए कि महिलाएं काजी नहीं बन सकतीं। जमात-ए-इस्लामी हिंद का कहना है कि निकाह के लिए काजी की जरूरत ही नहीं, पर सवाल इस मामले में जरूरत या गैर-जरूरत का नहीं, बल्कि दृष्टिकोण का है। जमात का नजरिया स्त्रियों को अवसर देने, उनका सशक्तीकरण करने और उनके अधिकारों की पक्षधरता का है।
जमात के एक अहम पदाधिकारी ने कहा कि इस्लाम में महिलाओं को जायदाद में बराबर का हक दिया गया है। सामाजिक फैसलों में उनकी सलाह लेने की बात कही गई है। महिलाओं को तालीम का पूरा हक दिया गया है। फिर बाधाएं कहां हैं! इन शिक्षाओं के अनुरूप सामाजिक जागरूकता की व्यापक मुहिम क्यों नहीं दिखती? इसके लिए काफी हद तक हमारी राजनीति भी जिम्मेवार है। मुसलमानों के वोट बटोरने के चक्कर में राजनीतिक दल मुसलिम समाज के रूढ़िवादी तत्त्वों को तवज्जो देने से बाज नहीं आते। इससे मुसलिम समाज में प्रगतिशीलता की संभावनाओं को चोट पहुंचती है। जाहिर है, मुसलिम महिलाओं की बेहतरी का सवाल मुसलिम समाज के साथ हमारी राजनीति के रिश्ते से भी जुड़ा हुआ है।