उपलब्धि के नाम पर बस इतना ही कहना उचित होगा कि दोनों नेता मिले और आमने-सामने बात हुई। जैसी कि खबरें आई हैं कि ताइवान मुद्दे पर बाइडेन ने चीन को चेता दिया है कि वह उस पर हमला करने का इरादा छोड़ दे और चीनी राष्ट्रपति शी ने अमेरिका को हद में रहने की नसीदत दी है, उनसे साफ है कि गतिरोध आसानी से नहीं टूटने वाला।

गौरतलब है कि लंबे समय से ताइवान का मुद्दा दोनों देशों के बीच टकराव का कारण बना हुआ है और यह वैश्विक राजनीति को भी व्यापक रूप से प्रभावित कर रहा है। यह तो दुनिया देख ही रही है कि कैसे इस मुद्दे पर चीन और अमेरिका आमने-सामने हैं। पर बातचीत की मेज पर आना अच्छा संकेत इसलिए है कि संवाद के जरिए ही दुनिया के बड़े से बड़े संकटों का समाधान भी संभव हुआ है।

बैठक भले जी-20 देशों की हो, लेकिन दुनिया की निगाहें बाइडेन और शी जिनपिंग की मुलाकात पर ही टिकी रहीं। क्योंकि राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार बाइडेन जिनपिंग से मिले हैं। इस बीच पिछले महीने जिनपिंग भी तीसरे कार्यकाल के चुन लिए गए। यानी चीन की वैश्विक नीति में कोई बड़ा बदलाव आएगा, कहना मुश्किल है। वैसे भी अमेरिका और चीन के बीच गतिरोध के मुद्दे कम नहीं हैं।

दोनों देशों के बीच व्यापार युद्ध और फिर चीन पर कोरोना महामारी फैलाने के अमेरिका के आरोप से रिश्तों में खटास तो बनी हुई थी ही। और इस साल अगस्त में अमेरिकी प्रतिनिधि की सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा को लेकर दोनों देश जिस तरह से आमने-सामने आ गए थे, उससे युद्ध की आशंकाएं प्रबल होती दिख रही थीं। चीन ने पैलोसी की यात्रा से पहले और बाद में ताइवान के वायु क्षेत्र में अपने लड़ाकू जहाज उड़ा कर अमेरिका को ताइवान से दूर रहने का संदेश दिया था और उसके समुद्री क्षेत्र में भी अपनी ताकत दिखाई थी। पर चीन के भारी विरोध और चेतावनियों के बावजूद अमेरिका ने जिस तरह दो दर्जन लड़ाकू विमानों की कड़ी सुरक्षा में पैलोसी को ताइवान में उतरवाया, उसका संकेत साफ था कि ताइवान के मुद्दे पर अमेरिका चीन को मुंहतोड़ जवाब देगा।

बाइडेन और जिनपिंग की मुलाकात ऐसे समय में हुई है जब पिछले दस महीने से रूस-यूक्रेन के बीच लड़ाई चल रही है। इस जंग ने भी दुनिया को दो खेमों में बांट दिया है। चीन रूस के साथ खड़ा है और अमेरिका व पश्चिमी देश यूक्रेन के। दोनों नेताओं के बीच उत्तर कोरिया, चीन में मानवाधिकारों के उल्लंघन, हांगकांग का मुद्दा आदि भी उठे। उत्तर कोरिया पर चीन का वरदहस्त है।

उत्तर कोरिया परमाणु ताकत से संपन्न हो चुका है और यह क्षेत्रीय शांति के लिए बड़ा खतरा बन गया है। इसके अलावा दक्षिण प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती गतिविधियों ने अमेरिका की नींज उड़ा रखी है। इससे निपटने के लिए भी अमेरिका ने क्वाड जैसे मोर्चे खोल रखे हैं। ये सारे मुद्दे जटिलता लिए हुए हैं। इतना तो साफ है कि कोई पक्ष झुकने वाला नहीं। दोनों परमाणु शक्ति संपन्न हैं और सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य भी। ऐसे में दोनों नेताओं से उम्मीद यही करनी चाहिए है कि आक्रामक रुख छोड़ उदारवादी शक्ति संतुलन के रास्ते पर ही चलें। तभी शांति की राह खुलेगी।