कई बार कानूनी प्रावधानों की तकनीकी बारीकियों की व्याख्या इस तरह की जाती है, जो अपराध को रोकने के बजाय उसे संरक्षण देती दिखती है, भले उसके पीछे मंशा वही न हो। कुछ समय पहले मद्रास हाईकोर्ट ने एक मामले में व्यवस्था दी थी कि बच्चों से जुड़ी अश्लील सामग्री यानी चाइल्ड पोर्नोग्राफी को इंटरनेट से डाउनलोड करना और निजी तौर पर देखना यौन अपराध से बच्चों के संरक्षण अधिनियम यानी पाक्सो और सूचना प्रौद्योगिकी कानून के तहत अपराध नहीं है।
‘निजी दायरे’ की दलील को एक हद तक सही माना जा सकता है, मगर बच्चों से जुड़ी अश्लील सामग्री देखना कुंठा, मानसिक विकृति और अपराध को उकसाने वाला भी हो सकता है। शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को ‘भयावह’ या ‘नृशंस’ बताया और तमिलनाडु पुलिस व आरोपी को नोटिस जारी किया। मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के लिए भी सुप्रीम कोर्ट राजी हो गया है।
इंटरनेट एक खुला आकाश है, जिस पर सकारात्मक और नकारात्मक सामग्री की भरमार है। मगर आज इस पर जिस तरह अश्लीलता का भी कारोबार हो रहा है, कम से कम भारत जैसे देश और यहां के समाज पर उसके जटिल सामाजिक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं। अश्लील सामग्री में डूबे रहने वाले व्यक्ति की त्रासदी इसी से समझी जा सकती है कि उसके भीतर गहरे पैठी कुंठा उसे बच्चों से जुड़ी ऐसी चीजों को देखने की ओर प्रवृत्त करती है।
मनोवैज्ञानिक रूप से कुंठा मानसिक विकृतियों का स्रोत और वाहक है। ऐसी गतिविधियों में लिप्त रहने वाला व्यक्ति कब बच्चों के खिलाफ यौन उत्पीड़न जैसी हरकत कर बैठे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा से जुड़ी आपराधिक घटनाओं में काफी बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
इसमें बच्चों की अश्लील सामग्री का प्रसार भी शामिल है। अपराध के कई स्तर और चरण होते हैं। इसलिए किसी भी अपराध पर लगाम लगाने के लिए जरूरी है कि उसके स्रोत और कारणों की पहचान की जाए, उसे शुरुआती स्तर पर ही रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं।