निर्वाचन आयोग के समक्ष स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के अलावा चुनावी हिंसा पर लगाम लगाना भी बड़ी चुनौती होती है। इसी के मद्देनजर वह मतदान की तारीखों का निर्धारण और सुरक्षाबलों की तैनाती करता है। चुनावी हिंसा की दृष्टि से पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश सबसे अधिक संवेदनशील माने जाते हैं। इनमें पश्चिम बंगाल में हिंसा की आशंका सबसे अधिक रहती है। वहां शायद ही कोई ऐसा चुनाव हो, जब हिंसा और उपद्रव न होता हो। हालांकि इस बार दूसरे चुनावों की तुलना में कहा जा सकता है कि हिंसा कम हुई, पर कोई ऐसा चरण नहीं गुजरा, जिसमें राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें न हुई हों।
सातवें और अंतिम चरण के मतदान की रात नदिया जिले में एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई, जिसे लेकर वहां तनाव पैदा हो गया। आरोप है कि तृणमूल कांग्रेस के लोगों ने उसकी हत्या की। तृणमूल का कहना है कि पारिवारिक रंजिश के चलते वह हत्या हुई। इसी तरह बिहार के नालंदा में एक जद(एकी) कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई। बताया जाता है कि वह कार्यकर्ता सातवें चरण के दौरान एक मतदान केंद्र पर एजंट था। जद(एकी) का कहना है कि राष्ट्रीय जनता दल और माकपा कार्यकर्ताओं ने अपनी हार की बौखलाहट में वह हत्या कर दी।
चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच उत्तेजना और परस्पर टकराव कोई अनहोनी बात नहीं। वैचारिक टकराव जीत के जुनून में अक्सर हिंसा का रूप ले लेते हैं। इसके पीछे निस्संदेह राजनीतिक दलों के प्रचारकों का भी बड़ा हाथ होता है। वे मंचों से जिस तरह के उत्तेजक भाषण देते हैं, उससे कार्यकर्ताओं का आवेशित होना स्वाभाविक है। इसी आवेश में वे अपने नेता और राजनीतिक दल के लिए मर मिटने को तैयार नजर आने लगते हैं। यह भी छिपी बात नहीं कि राजनीतिक दल अब धनबल के साथ-साथ बाहुबल को भी प्रश्रय देने लगे हैं।
कई राजनीतिक दल बाहें फैला कर बाहुबली नेताओं का स्वागत करते देखे जाते हैं। बेशक कुछ नेता सार्वजनिक मंचों से अपने कार्यकर्ताओं को संयम से काम लेने की नसीहत देते हैं, पर सच्चाई यही है कि कोई भी अपने उपद्रवी कार्यकर्ताओं के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाता। पश्चिम बंगाल में तो खुलेआम राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं की उपद्रवी गतिविधियों को संरक्षण देते देखे जाते हैं। ऐसे में वहां हिंसा का वातावरण सदा बना रहता है। न केवल चुनाव के दौरान, बल्कि चुनाव के बाद भी। विधानसभा और पंचायत चुनावों के दौरान यह कुछ बढ़ जाता है।
दरअसल, उन्हीं जगहों पर चुनावी हिंसा अधिक होती है, जहां राजनीतिक कार्यकर्ताओं में वैचारिक के बजाय निजी स्वार्थों का संघर्ष अधिक होता है। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में राजनीतिक कार्यकर्ता किसी न किसी लाभ के लोभ में राजनेताओं से जुड़े रहते हैं। अगर सत्तापक्ष के राजनेता होते हैं, तो वे अपने कार्यकर्ताओं को किसी काम का ठेका, किसी योजना के संचालन में हिस्सेदारी, अनुदान वगैरह देकर उन्हें उपकृत करते रहते हैं। पश्चिम बंगाल और बिहार में यह कुछ अधिक देखा जाता है। इसलिए हर कार्यकर्ता अपने नेता के लिए संघर्ष करता देखा जाता है। राजनीतिक दल अपना जनाधार कार्यकर्ताओं के बल पर ही बढ़ा पाते हैं। मगर उन्हें वैचारिक स्तर पर ही संवेदित किया जाए, तभी लोकतंत्र के मायने रहते हैं, उन्हें स्वार्थ से जोड़ कर हिंसा में झोंक देना किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता।