राजनेताओं में यह प्रवृत्ति पिछले कुछ समय से काफी तेजी से पनपी है कि वे सार्वजनिक मंचों से अशोभन, अमर्यादित और भड़काऊ बयान देना अपनी शान समझते हैं। अगर उन पर आपत्ति दर्ज कराई जाती है, तो अक्सर वे उस पर टालमटोल का रुख अख्तियार करते हैं। ज्यादा दबाव बनता है, तो यह कहते हुए वे क्षमा मांग लेते हैं कि अगर उनके बयान से किसी को ठेस पहुंची है, तो वे अपनी बात वापस लेते हैं।

मगर सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बाद शायद राजनेताओं को कुछ सबक मिले। मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री विजय शाह ने कर्नल सोफिया कुरैशी के बारे में जैसी भद्दी टिप्पणी की, उसे लेकर स्वाभाविक ही लोगों में रोष पैदा हुआ। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने उस पर स्वत: संज्ञान लेते हुए मंत्री के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया। पुलिस ने उस पर भी टालमटोल का रवैया अख्तियार किया, जैसा कि रसूखदार लोगों के मामले में वह अक्सर करती है। तब उच्च न्यायालय ने दुबारा सख्त प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया।

सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बाद शायद राजनेताओं को कुछ सबक मिले

फिर, मंत्री महोदय ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष क्षमा याचना की। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें कड़ी फटकार लगाते हुए स्पष्ट कर दिया कि आपका कृत्य क्षमा योग्य नहीं है। इस मामले की जांच के लिए बाहरी राज्य के तीन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का एक विशेष कार्यबल गठित करने का आदेश दिया, जिसमें एक महिला अधिकारी भी होगी। न्यायालय इस जांच पर नजदीक से नजर रखेगा।

सर्वोच्च न्यायालय के इस रुख से जाहिर है कि मंत्री के खिलाफ कड़ा फैसला आ सकता है। किसी निष्ठावान सैन्य अधिकारी का संबंध आतंकवादियों से जोड़ना न केवल उसका अपमान करना, बल्कि पूरी सेना का मनोबल गिराने का प्रयास कहा जा सकता है। इस पर स्वाभाविक ही पूरे देश में रोष जाहिर हुआ, मगर विचित्र है कि विजय शाह के बयान के बचाव में भी कुछ लोग उतर आए। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इस पर अभी तक खामोश है। इससे विपक्षी दलों को बैठे-बिठाए निशाना साधने का मौका मिल गया है। अब तो राजग के कुछ सहयोगी भी इस मामले की कड़ी निंदा करने लगे हैं।

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कुछ मामले व्यक्तिगत नहीं होते, कि जिन पर पार्टी चुप्पी साध सके। अनेक मामलों में देखा जाता रहा है कि जब भी कोई बड़ा नेता इस तरह अपने किसी बयान के कारण विवादों में घिरता है, तो पार्टी उससे अपने को अलग कर लेती है। मगर विजय शाह के मामले में ऐसा नहीं किया जा सकता। वे एक राज्य सरकार में जिम्मेदार मंत्री पद का निर्वाह कर रहे हैं।

अगर विजय शाह के खिलाफ अदालत कोई कड़ा कदम उठाती है, तो इससे पार्टी की किरकिरी और बढ़ेगी ही। इस तरह के बयान देने वाले नेताओं को संरक्षण देकर आखिरकार पार्टियों की साख पर ही धब्बा लगता है। अपने नेताओं को अनुशासन का पाठ पढ़ाना पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का दायित्व होता है।

फिर, सवाल मध्यप्रदेश सरकार पर भी उठे ही हैं कि आखिर मुख्यमंत्री किन दबावों में एक विवादित नेता को मंत्री पद पर बरकरार रखे हुए हैं। किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह अच्छी बात नहीं मानी जाती कि उसके किसी नेता को अनुशासित करने के लिए अदालत को कदम उठाने पड़ें। इतना कुछ हो जाने के बाद विजय शाह को खुद भी शायद इस बात का अहसास नहीं हो पाया है कि उन्होंने गैरजिम्मेदाराना बयान देकर अपने और पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है।