हमारे देश में कर्जदारों के बैंकों को चूना लगा कर चंपत हो जाने के मामले अक्सर सामने आते रहे हैं, लेकिन ऐसे मामलों में बैंकों का व्यवहार कर्जदार की हैसियत के हिसाब से तय होने की हकीकत इन दिनों त्रासद रूप से उजागर हुई है। यह बेहद अफसोसनाक है कि जहां देश में शराब व्यवसाय के बादशाह कहे जाने वाले विजय माल्या से मुल्क के सत्रह बैंक अपना नौ हजार करोड़ का रुपए का कर्ज वसूलने में विनीत भाव से लगे रहने के बावजूद विफल रहे और अब उनके विदेश चले जाने पर हाथ मल रहे हैं। वहीं दूसरी ओर तमिलनाडु के तंजावुर जिले के एक साधारण किसान को कर्ज की महज दो किस्तें न चुकाने पर बैंक के वसूली एजेंटों और पुलिस की बर्बर पिटाई का शिकार होना पड़ा। इस किसान ने 2011 में निजी क्षेत्र के कोटक महेंद्रा बैंक से ट्रैक्टर खरीदने के लिए तीन लाख अस्सी हजार चार सौ तीस रुपए कर्ज लिया था और छह छमाही किस्तों में चार लाख ग्यारह हजार दो सौ रुपए चुका भी दिए थे। इस कर्ज की महज दो किस्तें बाकी थीं, जिनकी वसूली के लिए बैंक के एजेंट, स्थानीय पुलिस इंस्पेक्टर और सिपाही खेत में ही जा धमके और निर्दयतापूर्वक पिटाई शुरू कर दी। उसे बुरी तरह धमकाया और ट्रैक्टर भी साथ लेकर चले गए। किसी शख्स ने इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दिया और वह वायरल हो गया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस वीडियो का खुद संज्ञान लेते हुए तमिलनाडु के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को नोटिस जारी कर उनसे दो हफ्ते के भीतर जवाब मांगा है। आयोग के अनुसार, कर्ज उगाही के लिए ऐसी जोर-जबर्दस्ती और मारपीट मानवाधिकार हनन का गंभीर मामला है। आयोग अगर इस मामले को निर्णायक अंजाम तक पहुंचा कर दोषी बैंक, उसके वसूली एजेंटों और पुलिसवालों को दंडित करा सका तो निश्चय ही उसका यह संज्ञान लेना भविष्य के लिए एक नजीर बन सकता है।
तमिलनाडु के किसान से हुआ यह बेरहम सलूक समानता के अधिकार के प्रति हमारी समूची व्यवस्था के मुंह चिढ़ाते व्यवहार की बानगी भर है। इस व्यवस्था में आम और खास अलग बर्ताव के हकदार हैं। इसी वजह से लोगों में धारणा बनती जा रही है कि नियम-कानूनों का चाबुक गरीबों-वंचितों की पीठ पर ही बरसता है, पैसे और पहुंच वालों तक तो वह पहुंचता भी नहीं है। आज देश के बैंकों के चार लाख करोड़ के ऋण डूबत खाते में पड़े हैं और वे अपने कर्जदारों का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं। बल्कि कई मामलों में तो उलटे उन्हें दुबारा-तिबारा कर्ज देने के लिए तैयार होते रहे हैं। इसके विपरीत आम किसान-मजदूरों से खाद-बीज या गाय-भैंस की खातिर लिये गए दस-बीस हजार रुपए के कर्ज वसूलने में उन्हें डराने-धमकाने, अपमानित करने में संकोच नहीं करते। पुलिस इस वसूली में कानून की रक्षक के बजाय बैंकों के एजेंट की भूमिका निभाती रहती है। हमारे यहां किसान आत्महत्याओं की एक बड़ी वजह फसलें चौपट होने पर कर्ज चुकाने में उनका असमर्थ हो जाना है। किसान हितैषी होने के दावे करने वाली सभी सरकारें इन आत्महत्याओं पर चिंता तो खूब जताती हैं मगर उन्हें कर्ज वसूली के अपमानजनक और जानलेवा तौर-तरीकों से बचाने के लिए कुछ नहीं कर रही हैं। कर्ज मूलत: और अंतत: कर्जदार की मदद होता है। इस मदद को मारक बनने से हर हाल में बचाया जाना चाहिए।