उत्तराखंड उच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बाद हरीश रावत की रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फिर गया है। एक दिन पहले ही न्यायालय की एकल पीठ ने विधानसभा में शक्ति परीक्षण का आदेश दिया था। मगर अगले दिन केंद्र सरकार ने इस फैसले को चुनौती देते हुए अपील की कि जब राज्य में विधानसभा निलंबित और राष्ट्रपति शासन लागू हो तो शक्ति परीक्षण कराना संवैधानिक तकाजे के खिलाफ होगा। फिर अदालत के दो जजों के पीठ ने शक्ति परीक्षण पर रोक लगा दी। हालांकि उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के औचित्य को चुनौती देने वाली याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई अगले हफ्ते होनी है, मगर वहां भी हरीश रावत सरकार के लिए उम्मीद की कोई सूरत शायद ही निकल पाए। कुछ ऐसी ही स्थितियां अरुणाचल में भी थीं, जहां पहले राज्यपाल ने बागी विधायकों के पक्ष में कदम उठाए। फिर आनन-फानन केंद्र ने वहां राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला कर डाला।

जब स्थितियां भाजपा के समर्थन से बागी विधायकों की सरकार लायक बन गर्इं तो राष्ट्रपति शासन वापस ले लिया गया और वहां भाजपा समर्थित सरकार बन गई। उत्तराखंड में भी लगभग वही स्थितियां हैं। वहां भी कांग्रेस के बागी विधायकों का रुख भाजपा की तरफ है और वह सरकार बनाने को उतावली है। केंद्र ने इसमें अतिरिक्त दिलचस्पी लेते हुए वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की इसलिए सिफारिश की कि अगर एक दिन भी देर होती तो हरीश रावत शायद बहुमत साबित करने में सफल हो जाते। विधानसभा अध्यक्ष ने चूंकि बागी विधायकों की सदस्यता समाप्त करने का फैसला कर लिया था, कांग्रेस और भाजपा के विधायकों की संख्या बराबर हो गई थी। ऐसे में निर्दलीय और दूसरे दलों के विधायकों के समर्थन से वहां फिर कांग्रेस की सरकार बन सकती थी।

इस तरह सेंधमारी करके भाजपा भले उत्तराखंड में भी अपनी सरकार बना ले, मगर उसके लिए धारा 356 के दुरुपयोग के आरोप से मुक्त हो पाना आसान नहीं होगा। गौरतलब है कि उत्तराखंड में राज्यपाल ने राजनीतिक अस्थिरता की बात तो की थी, पर संवैधानिक संकट की बात नहीं कही थी। जबकि राष्ट्रपति शासन का फैसला तभी किया जाता है जब किसी राज्य में संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा हो जाए। इसका फैसला सर्वोच्च न्यायालय में होना है कि अरुणाचल और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने का केंद्र सरकार का फैसला उचित था या नहीं। फैसला जो भी आए, पर उससे गिराई गई सरकार को जो नुकसान उठाना पड़ा, उसकी भरपाई किसी भी तरह नहीं होगी। फिर सबसे अहम बात कि जिस दल को लोगों ने जनादेश दिया था, उससे छल या बल के जरिए सरकार चलाने का अधिकार छीन कर खुद गद्दी पर बैठ जाना जनतांत्रिक मूल्यों के साथ धोखाधड़ी ही कही जाएगी। हालांकि राष्ट्रपति लगाने के प्रावधान का दुरुपयोग रोकने के लिए स्पष्ट कानून है, दल बदल कर कोई सरकार गिराने या बनाने के खिलाफ भी कड़े कानून हैं, पर छोटे राज्यों में जहां पक्ष और विपक्ष के बीच बहुत कम सीटों का अंतर होता है, सत्ता पक्ष के विधायकों के बागी रुख अख्तियार कर दूसरे दल के पाले में जा मिलने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना मुश्किल बना हुआ है। इस तरह सियासी गोटियां खेल कर राजनीतिक दल सत्तासुख तो अर्जित कर लेते हैं, पर आखिरकार छला मतदाता ही जाता है। विचित्र है कि भाजपा इस प्रवृत्ति का सदा विरोध करती रही है, पर वही इसे बढ़ावा देने में लगी हुई है।