भारत में विवाह को स्त्री-पुरुष संबंध का मजबूत आधार माना जाता है। इसी से परिवार की नींव पड़ती है और हमारा समाज बनता है। इसके बरक्स अपने देश में सहजीवन को अभी तक सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। अलबत्ता, ऐसे रिश्ते चुनने वाले युगलों पर कोई वैधानिक रोक नहीं है। लोकतांत्रिक समाज की इसे उदारता कह सकते हैं। फिर भी सहजीवन के विरोध और समर्थन में प्राय: दलीलें दी जाती रही हैं। कई वर्ष पहले विवाह पंजीकरण विधेयक पारित होने के बाद भी सहजीवन को लेकर सवाल उठे थे और इसकी व्यावहारिकता पर प्रश्नचिह्न लगे थे।
आखिरकार सहजीवन में रह रहे युगल भी समाज का ही हिस्सा होते हैं और जहां भी रहते हैं, वहां उन्हें सब देखते और जानते ही हैं। इस तरह उनका कुछ भी गोपनीय नहीं रहता। ऐसे ही एक युगल के तर्क पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय की यह टिप्पणी गलत नहीं कि जब आप विवाह किए बिना साथ रहते हैं, तो सहजीवन का पंजीकरण आपकी निजता पर हमला कैसे हुआ? आप समाज में रह रहे हैं, न कि जंगल में। इसमें कोई दो मत नहीं कि अगर ऐसे किसी रिश्ते में गहरा समर्पण और एक-दूसरे पर भरोसा है, तो फिर डर कैसा?
सहजीवन से विवाह संस्था को खतरा
दरअसल, उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद सहजीवन का पंजीकरण अनिवार्य करने के खिलाफ एक याचिकाकर्ता ने सवाल उठाया है। आज की पीढ़ी को यह समझने की जरूरत है कि ऐसे रिश्ते के लिए यह कानूनी व्यवस्था क्यों करनी पड़ी? ऐसा क्यों लगता है कि सहजीवन से विवाह संस्था को खतरा है। क्या कोई भी समाज परिवार बनाने और बचाने की भावना को कमजोर होते देख सकता है?
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वहीं स्त्रियों की सुरक्षा भी बड़ा मुद्दा है। सहजीवन में रह रहीं कई महिलाओं से मारपीट और घरेलू हिंसा के मामले सामने आने के बाद भारतीय समाज में चिंता बढ़ी है। सहजीवन में जन्मी संतानों और उनकी मांओं के कानूनी अधिकार को भी नजरअंदाज नहीं किया सकता। ऐसे में इस तरह के रिश्ते के पंजीकरण से भला क्यों परहेज होना चाहिए? यह अजीब बात है कि हम आधुनिकता की अंधी गलियों में आंखें मूंदे क्यों भटक रहे हैं।
