महाशक्ति कहे जाने वाले अमेरिका में लोकतंत्र बचाने के दावे के साथ जारी चुनावी जंग में दोनों पक्षों की भाषा ऐसे स्तर पर उतर गई लगती है, जिसमें खुद को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन बताने के लिए कई बार आपत्तिजनक शब्दों का भी सहारा लिया जाने लगा है। यह किसी तीसरी दुनिया या पिछड़े कहे जाने वाले देश के राजनीतिक माहौल के संदर्भ में होता, तो उसकी वजहें समझी जा सकती थीं। मगर हैरानी की बात है कि अमेरिका जैसे सभ्य और विकसित माने जाने वाले देश में भी मुख्य प्रत्याशियों के बीच एक-दूसरे के खिलाफ जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं है।
ट्रंप-हैरिस ने जनता की समस्या के बजाय एकदूसरे पर लगाए आरोप
गौरतलब है कि अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की ओर से न्यूयार्क की एक रैली में उनकी प्रतिद्वंद्वी कमला हैरिस के बारे में कुछ निजी और आपत्तिजनक टिप्पणियां की गईं। वहीं कमला हैरिस ने भी मुद्दों के बजाय ट्रंप को खतरनाक और राष्ट्रपति पद के लिए अयोग्य बताया। दोनों ही प्रत्याशी खुद को अमेरिका के लोकतंत्र का ज्यादा सक्षम और योग्य पहरुआ बता रहे हैं।
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सवाल है कि अमेरिका जैसे देश में इतने वर्षों के लोकतंत्र के बावजूद अब तक किस परंपरा का विकास हुआ है कि आज भी एक प्रत्याशी को दूसरे पर हावी होने के लिए जनता के हित से जुड़े मुद्दों पर बात करने के बजाय निजी हमलों और सनसनी फैलाने वाले आरोपों का सहारा लेना पड़ रहा है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि शीर्ष पदों पर बैठे, देश का नेतृत्व करते या उसके लिए दावेदारी करने वाले लोग जब जनता से संवाद करते हैं, तो उसमें मुद्दों पर बातें करने के लिए इस्तेमाल होने वाली भाषा का लोगों पर कैसा असर पड़ता है।
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लोगों के सोचने-समझने का स्तर भी कई बार मुख्यधारा के राजनीतिक माहौल से संचालित और निर्धारित होने लगता है। जबकि अगर अमेरिका में राष्ट्रपति पद के दोनों मुख्य उम्मीदवार एक-दूसरे को कमतर ठहराने के लिए निम्नस्तरीय भाषा का इस्तेमाल करने के बजाय आम लोगों के हित से जुड़े मसलों के हल का खाका पेश करते, तो न केवल लोगों में एक परिपक्व समझ का विकास होता, बल्कि देश का लोकतंत्र भी मजबूत होता।