समाज में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा रोकने के लिए कई कड़े कानून बनाए गए हैं, जागरूकता कार्यक्रमों के समांतर महिला सशक्तीकरण के लिए कार्यक्रम चलाए जाते हैं। मगर आज भी बड़ी संख्या में महिलाएं तरह-तरह से हिंसा का शिकार हो रही हैं। अर्थव्यवस्था के चमकते आंकड़ों और विकास के दावों के बीच ऐसा क्या है जो हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण और मानस को मानवीय बना पाने में बाधक बना हुआ है।
महिलाओं के खिलाफ घर से बाहर होने वाले अपराध निश्चित रूप से बेहद गंभीर समस्या हैं, लेकिन इससे त्रासद क्या होगा कि आज भी हमारे परिवारों के ढांचे और व्यवहार में ऐसा बदलाव नहीं आ सका है, जो कम से कम घरों की चारदीवारी के भीतर महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें।
राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी ताजा रपट में बताया है कि इस वर्ष उसे अब तक सात हजार छह सौ अट्ठानबे शिकायतें मिली हैं, जिनमें सबसे ज्यादा संख्या घरेलू हिंसा, मारपीट और आपराधिक धमकी की है।
सवाल है कि लंबे समय से चलाए जा रहे स्त्री-पुरुष समानता और महिला सशक्तीकरण संबंधी कार्यक्रमों और अभियानों की दिशा क्या रही है कि आज भी बड़ी संख्या में महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। यह समझना मुश्किल है कि किन्हीं वजहों से पिछड़ गए समुदायों ही नहीं, आमतौर पर पढ़े-लिखे, सुसभ्य कहे जाने वाले लोगों के भीतर भी महिलाओं के खिलाफ अनेक दुराग्रह और संकीर्णताएं क्यों पलती रहती हैं।
यह न केवल समाज के स्तर पर एक बड़ी नाकामी का सबूत, बल्कि कानून-व्यवस्था के भी कमजोर होने का सूचक है। समाज में आपराधिक सोच कब हिंसक शक्ल अख्तियार कर लेती है, यह किसी को पता नहीं चलता। जाहिर है, महिलाओं के विरुद्ध अपराधों पर लगाम लगाने के लिए बने कानूनों को जहां सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है, वहीं सबसे ज्यादा जोर लोगों की सोच में बदलाव पर भी दिया जाना चाहिए, जिसकी वजह से कोई व्यक्ति या उसका परिवार महिला से संवाद करने के बजाय हिंसक रुख अपना लेता है।