विकास की बेलगाम दौड़ नाजुक हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र पर भारी पड़ने लगी है। हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर से लेकर उत्तराखंड तक बाढ़, भूस्खलन और जमीन धंसने की लगातार घटनाएं किसी बड़े खतरे की ओर इशारा कर रही हैं और इंसानी गतिविधियों पर अंकुश लगाने की चेतावनी दे रही हैं, लेकिन अदम्य लालच में प्रकृति की पुकार को अनसुना किया जाता रहा है।

नतीजतन, पहाड़ खोखले हो गए हैं, शहर धंस रहे हैं। ताजा मामला हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति का है, जहां के एक गांव में जमीन धंसने के कारण सोलह में से नौ घरों में दरारें आ गई हैं। ये दरारें ऐसी हैं कि कई घर रहने लायक नहीं रह गए हैं। लोगों में दहशत है और उनका डर वाजिब है। इसी साल बरसात के मौसम में बारिश, बाढ़ और भू-धंसाव के कारण पूरे हिमाचल प्रदेश में बहुत सारे घर तबाह हो गए, सड़कें और पुल बह गए।

इन घटनाओं में काफी लोगों की जान भी चली गई। इसी वर्ष की शुरुआत में उत्तराखंड के जोशीमठ शहर में धरती धंसने की घटनाओं से पूरा हिमालयी क्षेत्र सहम गया था, जहां सैकड़ों मकानों, सड़कों, होटलों आदि में दरारें आ गई थीं और लोग पलायन को मजबूर हो गए।

सवाल यह है कि पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं, विशेषकर जमीन धंसने की घटनाओं में वृद्धि क्यों हो रही है और सरकारी तंत्र इसकी अनदेखी क्यों कर रहा है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बढ़ती आबादी के साथ सरकारी मशीनरी अति सक्रियता से काम कर रही है। मैदानी क्षेत्रों की बिजली, तीर्थाटन और पर्यटन की जरूरतें पूरी करने के लिए भी यहां निर्माण कार्यों और विकास की गतिविधियों पर जोर दिया जा रहा है।

उद्योगों के अनुरूप नीतियां लाई जा रही हैं, जिससे औद्योगिेक गतिविधियां तेजी से बढ़ी हैं। पहाड़ों को काट-छील कर सड़कें और सुरंगें बनाई जा रही हैं, उच्चमार्ग और पुल बनाए जा रहे हैं। दर्जनों बिजली परियोजनाएं चल रही हैं। ये ज्यादातर काम पहाड़ी क्षेत्र में सुरक्षा मानकों की अनदेखी कर हो रहे हैं। बेतहाशा खुदाई, भूजल निकासी और उत्खनन के कारण पहाड़ों की जड़ें खोखली हो गई हैं।

नदी-नाले गाद, मिट्टी और मलबे से अवरुद्ध हो गए हैं। इससे जल-जमाव और रिसाव से जमीन दलदली हो गई है। एक रिपोर्ट के अनुसार जमीन से अत्यधिक मात्रा में पानी निकालने की वजह से कुछ भूजल स्रोत में मिट्टी का भराव हो जाता है और भू-धंसाव की यह सबसे आम वजह बनती है। विशेषज्ञों ने भी जोशीमठ में जमीन धंसने का बड़ा कारण यही बताया है।

दरअसल, अनियोजित विकास और सरकारों की अदूरदर्शी नीतियां पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र या राज्य सरकारों ने केदारनाथ आपदा, रैणी आपदा, चमोली में हुए हादसों से कोई सबक नहीं सीखा। आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के राज्य आपातकालीन संचालन इकाई की एक रपट के मुताबिक, लाहौल-स्पीति की तरह हिमाचल प्रदेश के सैकड़ों गांवों-कस्बों पर भू-धंसाव का खतरा मंडरा रहा है।

प्रत्येक हादसे के बाद जांच और समीक्षा समितियां बनाकर सरकार समझ लेती है कि उसकी जिम्मेदारी पूरी हो गई। अगर समय रहते पहाड़ों को बचाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई, तो आने वाले समय में हालात बहुत भयावह हो सकते हैं। सरकार को चाहिए कि पूरे हिमालयी क्षेत्र का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन कराए। संवेदनशील इलाकों में बेलगाम निर्माण गतिविधियां हर हाल में रुकनी चाहिए।