अभी दिल्ली के मुख्यमंत्री और प्रवर्तन निदेशालय के बीच जोर आजमाइश चल रही है। आबकारी नीति में हुई कथित अनियमितताओं को लेकर प्रवर्तन निदेशालय नें पांचवीं बार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को पूछताछ के लिए नोटिस भेजा, मगर उन्होंने फिर यह कह कर उसे टाल दिया कि नोटिस अवैध है।
चंडीगढ़ के मेयर चुनाव में हुई कथित गड़बड़ी को लेकर पार्टी ने दिल्ली में भाजपा मुख्यालय पर प्रदर्शन किया। इसमें अरविंद केजरीवाल को भेजे गए नोटिस का मुद्दा भी शामिल था। खुद केजरीवाल ने इसे लेकर प्रेसवार्ता की और बताया कि किस तरह केंद्र सरकार उनकी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है। वह नहीं चाहती कि वे आम चुनाव में प्रचार करने जा सकें।
उन्होंने बताया कि शराब घोटाला मामले में लंबे समय से सीबीआइ और ईडी जांच कर रही हैं, मगर उन्हें आज तक एक भी पुख्ता सबूत हाथ नहीं लगा है। यह पहली बार नहीं है, जब अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी इस मामले को बेबुनियाद, मनगढ़ंत और बेवजह परेशान करने की नीयत से रचा गया बता रहे हैं। जब यह मामला सामने आया, तबसे लेकर अब तक उनका यही दावा है कि वे कट्टर ईमानदार लोग हैं, उनके पास छिपाने को कुछ नहीं है।
मगर अब प्रवर्तन निदेशालय पर शायद उनके तर्कों, शक्ति प्रदर्शन और राजनीतिक हथकंडों का शायद ही कोई असर पड़े। ईडी को कानूनी अधिकार हैं कि तीन बार से अधिक नोटिस भेजे जाने के बावजूद कोई व्यक्ति पूछताछ के लिए हाजिर नहीं होता है, तो वह उसे गिरफ्तार कर सकता है या उसके कुछ अधिकारी उससे पूछताछ कर सकते हैं।
हालांकि पिछले साल अप्रैल में सीबीआइ केजरीवाल से करीब नौ घंटे पूछताछ कर चुकी है। मगर ईडी से वे बचते फिर रहे हैं। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी ऐसे ही तर्कों के साथ ईडी का सामना करने से बच रहे थे। आखिरकार अधिकारियों ने उनके कार्यालय में जाकर पूछताछ की और जब वे अपने पक्ष में संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए, तो दो दिन पहले उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
अरविंद केजरीवाल खुद यह बात कह रहे हैं कि यही प्रक्रिया उनके साथ भी दोहराई जा सकती है। पहले ही इसे लेकर वे पार्टी कार्यकर्ताओं और विधायकों की बैठक करके रणनीति तय कर चुके हैं कि अगर उन्हें गिरफ्तार किया गया, तो उस स्थिति में क्या करना होगा।
बेशक ईडी और सीबाआइ की कार्यशैली लंबे समय से प्रश्नांकित की जा रही है, पर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि अगर अरविंद केजरीवाल सचमुच बेदाग हैं, उनका शराब घोटाले से कोई लेना-देना नहीं, तो फिर उन्हें ईडी के सवालों से बचने की जरूरत क्या है। उन्हें अपने पक्ष में सबूत पेश करने में हिचक क्यों होनी चाहिए।
एक समय वे खुद कामकाज में पारदर्शिता के लिए आरोपी नेताओं को कानून का सामना करने की वकालत करते थे। फिर उन्हें इस मामले में कन्नी काटने की क्या जरूरत? इस मामले में उनके दो नेता सलाखों के पीछे हैं। अगर सचमुच आबकारी नीति सही थी और उसके तहत शराब के ठेकों का आबंटन आदि पारदर्शी तरीके से किया गया था, तो उन्हें इसके प्रमाण पेश करके इस मामले पर से पर्दा उठाना चाहिए। इस तरह की राजनीतिक रस्साकशी से आखिरकार आम नागरिक दिग्भ्रमित होते हैं।