कई वजह हो या फिर ऐसी बात, जिस पर गुस्सा तक नहीं होना चाहिए, उस पर भी अब लोग तुरंत इस कदर आवेश में आने लगे हैं कि देखते ही देखते वे हिंसक रूप ले लेते हैं। पिछले दिनों दिल्ली में खाना बना रहे एक मजदूर ने महज इस बात के लिए अपने एक साथी की हत्या कर दी, क्योंकि उसने सब्जी में नमक ठीक से डालने के लिए कहा था। भोजन में नमक कम या ज्यादा हो जाना क्या कोई ऐसी बात है कि जो किसी को इतना हिंसक बना दे कि वह अपने ही साथी की जान ले ले? यह गुस्सा है या मानसिक विकार?
आज अधिकतर लोग आर्थिक संकट, टूटते रिश्ते, घर-दफ्तर या फिर परिवार की किसी न किसी समस्या से परेशान हैं। मगर हमने कैसा समाज बना डाला है, जहां किसी कमजोर के साथ नाइंसाफी होने, कोई अधिकार छिन जाने या फिर स्त्रियों की गरिमा के हनन होने पर तो गुस्सा नहीं आता, लेकिन जिन बातों को नजरअंदाज कर आगे बढ़ जाना चाहिए, वहां लोग मामूली विवाद पर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। शहरों-महानगरों में सड़कों पर ऐसे दृश्य आम हैं जब बहुत छोटी बात पर भी हिंसक और जानलेवा टकराव हो जाता है।
बदल गई है लोगों की जीवन शैली
पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह लोगों की जीवन शैली बदली है, उसका एक नकारात्मक पक्ष यह भी है। अब लोग कम समय में अधिक पाने की उम्मीद करने लगे हैं। जब यह आकांक्षा पूरी नहीं होती, तो उनमें निराशा और हताशा बढ़ने लगती है। इसी के साथ उनमें आया चिड़चिड़ापन कब गुस्से में बदल जाता है, इसका पता भी नहीं चलता। वहीं लोगों के बीच बेतहाशा प्रतिद्वंद्विता भी देखी जाने लगी है। जब किसी को मन मुताबिक चीजें नहीं मिलतीं, तो इसे लेकर मन में बनी गांठ में गुस्सा पलने लगता है जो कभी भी फूट पड़ता है।
पहले कोई झगड़ा होता था, तो लोग धीरज से काम लेते थे और मिल-बैठ कर सुलझा लेते थे। जिंदगी की कई मुश्किलों को हल करने का यही एक आसान तरीका था। मगर टीवी और मोबाइल पर लगातार परोसी जा रही नकारात्मक सामग्री के असर से और दूसरी समाज मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों की वजह से एक ऐसी पीढ़ी तैयार हुई है जो सहसा हिंसक हो उठती है। जबकि धैर्य और विवेक मनुष्यता के सबसे बड़े गुण हैं और इसे ही लोग खो रहे हैं।