दत्तक अधिनियम यानी बच्चों को गोद लेने का कानून इस उद्देश्य से बनाया गया था कि निस्संतान दंपतियों को संतान सुख और उत्तराधिकारी पाने का हक तथा अनाथ हो गए बच्चों को इसके जरिए माता-पिता का प्यार दिलाया जा सके। मगर इस कानून का लाभ उठा पाना इतना आसान नहीं है, क्योंकि इसमें गोद लेने संबंधी नियम और शर्तें कुछ जटिल हैं।
इन्हीं जटिलताओं के कारण विदेशी नागरिकों को भारत में बच्चा गोद लेते समय अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। मगर जो दंपति सारे नियम और शर्तों को पूरा करते हैं, उन्हें भी अगर अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल नहीं हो पाता, तो उस पर एतराज स्वाभाविक है। ऐसी ही शिकायतों को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में गुहार लगाई गई कि केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण यानी कारा की तरफ से कोई न कोई बाधा उपस्थित की जा रही है।
लोगों को अनापत्ति प्रमाणपत्र के बजाय समर्थन पत्र दिए जा रहे हैं। इस पर उच्च न्यायालय ने कहा है कि विदेशी नागरिकों को बच्चा गोद लेने संबंधी प्रक्रिया को जटिल नहीं बनाया जाना चाहिए। जिन देशों से गोद लेने संबंधी अंतरराष्ट्रीय समझौते हैं, उन देशों के नागरिकों को इस प्रक्रिया में अधिक नहीं उलझाया जाना चाहिए।
अदालत ने यह निर्देश शिकायत के पक्ष में उपलब्ध कराए गए प्रमाणों के आधार पर दिया है। इस संबंध में कारा के उच्च अधिकारी को तलब भी किया है। अपील करने वालों की तरफ से कहा गया कि अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए उन्हें काफी पैसा खर्च करना पड़ रहा है, उसके बावजूद उन्हें समर्थन पत्र ही दिया जा रहा है।
दरअसल, बच्चों को गोद लेने संबंधी नियमों में संबंधित प्राधिकार को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वे उन्हीं लोगों को बच्चा गोद लेने की अनुमति प्रदान करे, जो वास्तव में उनकी उचित देखरेख कर सकें। पिछले कुछ सालों में ऐसे अनेक मामले सामने आए, जिनमें विदेश में रह रहे लोग भारत से बच्चों को गोद तो लेते हैं, मगर उन्हें माता-पिता का प्यार नहीं देते।
बच्चों को जो अधिकार मिलने चाहिए, वे उन्हें नहीं दिला पाते। कई लोग तो ऐसे बच्चों को बंधुआ मजदूर की तरह घर में रखते और घर के सारे काम उनसे कराते हैं। जबकि दत्तक अधिनियम का मकसद है कि बच्चों को घर का वातावरण उपलब्ध हो सके, उन्हें अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और बेहतर भविष्य मिल सके। इस लिहाज से कारा अधिकारियों की सतर्कता उचित कही जा सकती है। मगर जो लोग सभी संबंधित नियम-कायदों को पूरा करते हों, उन्हें भी परेशान किया जाए, तो शिकायत स्वाभाविक है।
हमारे सरकारी महकमों में नियम-कायदों की आड़ में किसी भी काम को बेवजह अटकाए रखना और फिर रिश्वत लेकर वह काम कर देना कोई छिपी बात नहीं है। ऐसे में जब कोई काम विदेश में रहने वाले किसी व्यक्ति का हो, तो सरकारी कर्मचारियों की लार टपकनी स्वाभाविक है। ऐसे लोग यह सोच कर पैसा खर्च करने में गुरेज नहीं करते कि अगर एक काम के लिए उन्हें कई बार आना-जाना पड़ा, तो कहीं अधिक पैसा खर्च हो जाएगा।
मगर यह सिलसिला सहनशक्ति को पार कर गया होगा, तभी अदालत के दरवाजे तक पहुंचा। विचित्र है कि इस प्रवृत्ति के चलते न सिर्फ विदेशों में भारतीय कामकाज के तरीके को लेकर नकारात्मक संदेश जाता है, बल्कि परिवार के प्यार की उम्मीद लगाए बहुत सारे अनाथ बच्चों के सपने भी धुंधलाते रहते हैं। इसमें व्यावहारिक और पारदर्शी प्रक्रिया की दरकार है।