उत्तराखंड में चौबीस घंटे के भीतर एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। राज्य में राष्ट्रपति शासन को समाप्त करने और हरीश रावत की सरकार को बहाल करने के नैनीताल हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार तक रोक लगा दी है। जाहिर है, इससे केंद्र ने राहत महसूस की होगी, क्योंकि हाईकोर्ट के फैसले को उसके लिए बड़ा झटका माना जा रहा था। पर हाईकोर्ट के फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय के स्थगन आदेश का यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि यह किसी की हार या किसी की जीत है। स्थगन आदेश इस बिना पर दिया गया कि उस वक्त उच्च न्यायालय के फैसले की प्रति तक उपलब्ध नहीं थी। सर्वोच्च अदालत का फैसला सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार करने के बाद ही आएगा। इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस मामले को संविधान पीठ को सौंप दिया जाए।

स्थगन आदेश के साथ ही हाईकोर्ट के फैसले से पहले की स्थिति बहाल हो गई, यानी उत्तराखंड फिर से राष्ट्रपति शासन के तहत आ गया। पर सर्वोच्च अदालत ने इसी के साथ केंद्र को सचेत भी कर दिया कि वह जब चाहे तब राष्ट्रपति शासन हटा कर वहां अपनी मर्जी की सरकार बनवाने की कोशिश न करे। फिलहाल उत्तराखंड में एक बार फिर अनिश्चितता का आलम है। लेकिन यह मामला देश के राजनीतिक इतिहास में और साथ ही न्यायिक इतिहास में भी एक नजीर बनने जा रहा है।

हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सभी बुनियादी बातों को लेकर केंद्र को फटकार लगाई थी, चाहे वह राज्यपाल की रिपोर्ट हो या विश्वास-मत की निर्धारित तारीख से एक दिन पहले राष्ट्रपति शासन लगाने का निर्णय हो या कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की सदस्यता का मामला हो। अब ये सब मुद्दे सर्वोच्च अदालत की सुनवाई के दौरान भी उठेंगे।

सर्वोच्च अदालत का फैसला क्या होगा यह तो बाद में सामने आएगा, पर जैसा कि अनुमान लगाया जा सकता है और अदालत ने संकेत भी दिया है कि बोम्मई मामले के फैसले को वह ध्यान में रखेगी। उस ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च अदालत ने निर्देश दिया था कि किसी सरकार के बहुमत का फैसला सदन में ही होना चाहिए। उत्तराखंड के राज्यपाल ने इसकी तारीख तय कर दी थी। उसके एक दिन पहले राज्य सरकार क्यों बर्खास्त की गई, इस सवाल पर केंद्र हाईकोर्ट को संतुष्ट नहीं कर पाया था।

फिर उसकी बार-बार दोहराई गई यह दलील भी राज्यपाल की रिपोर्ट से मेल नहीं खाती कि पैंतीस विधायकों ने मत-विभाजन की मांग की थी, जिसे विधानसभा अध्यक्ष ने नामंजूर कर दिया था। बहरहाल, स्थगन आदेश फिलहाल बुधवार तक है, पर सुनवाई थोड़ी लंबी भी खिंच सकती है। अदालती सुनवाई के अलावा यह मामला संसद में भी सरकार और विपक्ष के बीच तीखी बहस का विषय बनेगा।

विपक्ष केंद्र को घेरने में कोई कसर क्यों छोड़ेगा? हाईकोर्ट की फटकार और तीखी टिप्पणियों से तिलमिलाई केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के स्थगन आदेश से थोड़ा सुकून भले महसूस किया हो, पर कुल मिला कर इस मामले में उसकी किरकिरी ही हुई है। अरुणाचल प्रदेश के बाद जिस तरह उत्तराखंड सरकार की विदाई की पटकथा लिखी गई उससे अच्छा संदेश नहीं गया है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा राज्य सरकारों के अधिकारों पर मुखर रहती थी। राज्यपालों के राजनीतिक इस्तेमाल और अनुच्छेद तीन सौ छप्पन के दुरुपयोग को वह कांग्रेस की फितरत बताती थी। फिर उसने वही रास्ता क्यों अख्तियार किया