केंद्र और राज्य सरकारों के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है। मगर इन दिनों तमिलनाडु सरकार और केंद्र के बीच रार से विचित्र स्थिति पैदा हो गई है। तमिलनाडु ने पहले केंद्र सरकार के निर्वाचन क्षेत्र परिसीमन प्रस्ताव का विरोध किया, फिर त्रिभाषा सूत्र का मुद्दा उठा कर विवाद खड़ा कर दिया कि केंद्र सरकार तमिलनाडु सहित दक्षिणी राज्यों पर हिंदी थोपना चाहती है। इसी विरोध के तहत तमिलनाडु सरकार ने अपने बजट के दौरान रुपए के राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न की जगह तमिल अक्षर का प्रयोग किया।
यह पहली बार है जब किसी राज्य ने किसी राष्ट्रीय प्रतीक को बदल कर अपना अलग प्रतीक चिह्न लागू करने का प्रयास किया है। स्वाभाविक ही इसे लेकर बहस छिड़ गई कि क्या किसी राज्य सरकार को बदलाव करने या अपना अलग प्रतीक चिह्न लागू करने का अधिकार है। पर सवाल अधिकार का नहीं है। राष्ट्रीय पहचान से जुड़े मसलों में कुछ चीजें अधिकार से नहीं, सामूहिक भावना से तय होती हैं। तमिलनाडु सरकार को बेशक कानूनी रूप से रुपए का अपना प्रतीक चिह्न तय करने का अधिकार हो, पर इससे आखिर उसे लाभ क्या होगा, और फिर मुद्रा के चलन संबंधी राष्ट्रीय विधान में उसकी क्या अहमियत होगी।
त्रिभाषा मामले को स्टालिन बना रहे मुद्दा
दरअसल, तमिलनाडु में असल विवाद परिसीमन को लेकर है। उसी से जोड़ कर वहां के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन दूसरे मुद्दे भी उठा रहे हैं। परिसीमन के मसले पर उन्होंने दक्षिण के सभी राजनीतिक दलों का सम्मेलन भी बुलाया है। इसे लेकर सभी विपक्षी दलों को एकजुट करने का भी प्रयास कर रहे हैं। मगर लगता नहीं कि इस तरह वे केंद्र को अपने फैसले पर पुनर्विचार के लिए बाध्य कर सकेंगे। इसलिए तमिल लोगों में भावनात्मक उभार लाने के लिए राष्ट्रीय शिक्षानीति में लागू त्रिभाषा सूत्र को मुद्दा बना गया। जबकि त्रिभाषा सूत्र कोई नया विचार नहीं है।
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लंबे समय से इस पर जोर दिया जाता रहा है कि विद्यार्थियों को हिंदी और अंग्रेजी के साथ एक स्थानीय भाषा सिखाई जानी चाहिए। यह सूत्र कई राज्यों में पहले से लागू है। मगर अपनी संस्कृति की रक्षा के नाम पर तमिलनाडु में इसका विरोध होता रहा है। यों राजनीतिक कारणों से, त्रिभाषा सूत्र प्रस्ताव के बहुत पहले से दक्षिणी राज्यों में हिंदी का विरोध होता रहा है। जबकि हकीकत यह है कि जिस तरह हिंदी ने व्यावसायिक गतिविधियों के तहत देश के सभी हिस्सों में अपनी पहुंच लगातार बढ़ाई है, उसमें दक्षिण के राज्य अछूते नहीं हैं। ऐसे में स्टालिन का त्रिभाषा सूत्र विरोध व्यवहार में कितना कारगर होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
तमिलनाडु राज्य को नहीं होने वाला है कोई लाभ
जहां तक रुपए का प्रतीक चिह्न बदलने की बात है, इससे भी तमिलनाडु राज्य को कोई लाभ नहीं होने वाला है। आखिर व्यवहार में मुद्राओं पर अंकित चिह्न वही बना रहेगा जो पूरे देश में लागू है, तब तमिलनाडु के सरकारी दस्तावेजों में अलग चिह्न प्रयुक्त होने भी लगे, तो क्या फर्क पड़ेगा। इससे लोगों में भ्रम ही पैदा होगा।
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स्टालिन के अपने दलगत लाभ हो सकते हैं, पर उसके लिए राज्य में मुद्रा के राष्ट्रीय प्रतीक को बदलना बहुत छोटी बात मानी जाएगी। असल मुद्दा परिसीमन का है, बात उस पर होनी चाहिए। उससे जुड़े अनेक सवाल हो सकते हैं, और हैं भी। कई तरह की आशंकाएं जताई जा रही हैं। इन सबका निराकरण लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही संभव है। राष्ट्रीय प्रतीकों से छेड़छाड़ करने से राष्ट्रीय पहचान ही विरूपित होगी।