प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की कार्यशैली और उसकी भूमिका पर आए दिन सवाल उठते रहे हैं। राजनीतिक दलों का आरोप है कि ईडी प्रतिशोध की भावना से कार्रवाई करती है। वहीं उच्च न्यायालयों से लेकर शीर्ष अदालत ने भी निदेशालय को कई बार सवालों के कठघरे में खड़ा किया है। यह अफसोसनाक है कि ईडी की जांच में आरोपी बनाए गए लोग दोषी सिद्ध न होने पर भी महीनों विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में बंद रहते हैं।
ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि धनशोधन रोकथाम कानून का दुरुपयोग कैसे और क्यों हो रहा है और किसके इशारे पर हो रहा है। इस कानून के तहत दोषसिद्धि दर पर भी सवालिया निशान लग चुके हैं। गुरुवार को शीर्ष न्यायालय ने भी इस बात पर चिंता जताई है कि धनशोधन मामलों में सजा की दर बहुत कम है। अदालत ने ईडी को सख्त लहजे में चेताया है कि वह किसी गुंडे की तरह काम नहीं कर सकती, उसे कानून के दायरे में रह कर काम करना होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार ईडी की कार्यशैली पर सवाल नहीं उठाया है
अदालत की टिप्पणी ईडी की जांच प्रक्रिया और कार्यशैली पर एक बड़ा सवाल है। अगर इस संस्था की छवि इस कदर नकारात्मक बन रही है, तो इस पर उसे सोचने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि शीर्ष न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय के कामकाज पर कोई पहली बार सवाल उठाया है। पिछले महीने भी अदालत ने कहा था कि ईडी सारी हदें पार कर रही है। यह गंभीर स्थिति है कि न्यायिक हिरासत खत्म होने के बाद आरोपी जेल से बाहर आ जाते हैं। इस दौरान प्रवर्तन निदेशालय न तो अपनी जांच पूरी कर पाता है और न ही उनके खिलाफ आरोप सिद्ध कर पाता है।
इस पर विचार किया जाना चाहिए कि अगर ईडी के पास किसी आरोपी को गिरफ्तार करने के लिए मजबूत आधार होता है तो दोषसिद्धि की दर दस फीसद से भी कम क्यों है। इस पर चिंता जताते हुए शीर्ष अदालत ने उचित सवाल किया है कि अगर आरोपी बरी हो जाते हैं, तो इसका भुगतान कौन करेगा।
यह बेकसूर नागरिकों की स्वतंत्रता का भी सवाल है। ईडी की छवि पर अगर प्रश्न उठ रहे हैं, तो इसका निवारण अब उसे ही करना होगा। इस संदर्भ में ईडी को शीर्ष अदालत की इस नसीहत पर गौर करने की जरूरत है कि उसे कानून की सीमा में काम करना चाहिए।