इस तरह के मामले अक्सर उठते रहे हैं कि सरकारें दागी अफसरों के खिलाफ उचित कार्रवाई करने के बजाय इसकी अनदेखी करती है। कई बार आरोपी अधिकारी की तैनाती उसके पसंद के पद पर भी कर दी जाती है। यह प्रकारांतर से उसे बचाने या पुरस्कृत करने जैसा ही है, जिसे सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में मानती है। जबकि इस तरह के रुख को न केवल नियमों के विरुद्ध माना जाता है, बल्कि यह मनमानी भी है, जिससे सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक व्यवस्था और मूल्यों को नुकसान पहुंचता है।

उत्तराखंड के एक मामले की सुनवाई करते हुए बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही मनमानी रवैये के खिलाफ तीखी टिप्पणी की है और इसे एक तरह से लोकतंत्र के विरुद्ध बताया है। गौरतलब है कि भारतीय वन सेवा यानी आइएफएस के एक अधिकारी को उत्तराखंड के राजाजी टाइगर रिजर्व का निदेशक बनाए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने तीखी नाराजगी जताई और राज्य के मुख्यमंत्री को सख्त फटकार लगाई। अदालत ने साफ कहा कि जिस अफसर को पेड़ों की गैरकानूनी तरीके से कटाई के मामले में जिम कार्बेट टाइगर रिजर्व से हटाया गया था, उसे रिजर्व का निदेशक क्यों बना दिया गया!

हैरानी की बात यह है कि जिस अधिकारी पर किसी भी रूप में कानून के विरुद्ध आचरण का आरोप लगा हो, उसके खिलाफ विधिक कार्रवाई सुनिश्चित करने के बजाय प्रक्रिया के तहत आरोपमुक्त होने से पहले ही फिर से उसे निदेशक जैसे पद पर तैनात कर दी जाती है। क्या उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के लिए लोकतांत्रिक दायित्वों और मर्यादा के यही मायने हैं?

सुप्रीम कोर्ट ने सामंती युग की दिलाई याद

दरअसल, इस नियुक्ति में नियम-कायदों, नैतिकता और लोकतांत्रिक परंपराओं को जिस तरह ताक पर रख दिया गया, शायद उसी के मद्देनजर शीर्ष अदालत को यह टिप्पणी करने की जरूरत पड़ी कि ‘हम सामंती युग में नहीं हैं कि जैसा राजा बोले वैसा ही होगा।’ हालांकि इस मसले पर विवाद के बाद राज्य सरकार ने इस नियुक्ति के आदेश को वापस ले लिया, लेकिन इस संबंध में एक तथ्य यह सामने आया कि विभागीय मंत्री, मुख्य सचिव और अन्य वरिष्ठ अधिकारी इस नियुक्ति के पक्ष में नहीं थे, इसके बावजूद इस असहमति पर विचार करने के बजाय उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने दागी अफसर को निदेशक बना दिया।

जाहिर है, यह अपने दायित्व और अधिकार की सीमा पर गौर नहीं करने का ही एक उदाहरण है। भ्रष्टाचार या अन्य अनियमितता के आरोपों की वजह से कार्रवाई के दायरे में आने के बाद भी दागी अफसरों की ओर से आंखें मूंदे रखना या प्रकारांतर से उसे राहत पहुंचाने या पुरस्कृत करने को सरकारों और खासतौर पर शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति ने मानो अपना अधिकार मान लिया है। कम से कम इस बात का इंतजार भी नहीं किया जाता है कि अगर किसी अधिकारी पर अनियमितता के आरोप लगे हैं, तो उसके खिलाफ विभागीय जांच या कानूनी प्रक्रिया पूरी हो जाए।

ऐसी प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए है बाधक

इस तरह का रवैया किसी ऐसी व्यवस्था में ही आम हो सकता है, जहां एक व्यक्ति की मर्जी से सरकार और समूचा तंत्र चलता है। ऐसे मामले देश के अलग-अलग राज्यों से अक्सर आते रहते हैं, जिसमें भ्रष्टाचार या किसी अन्य गंभीर आरोप से घिरे व्यक्ति के मामले में उचित कार्रवाई करने के बजाय उसे राहत या किसी अहम जगह पर तैनाती दी जाती है। सुप्रीम कोर्ट के आकलन के मुताबिक देखें तो इसे सामंती युग के आचरण के तौर पर ही देखा जाएगा। ऐसी प्रवृत्ति से निश्चित तौर पर लोकतंत्र बाधित होता है।