अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे किसी मामले पर सुनवाई करते और फैसला सुनाते वक्त केवल उसके कानूनी पक्षों पर गौर करें। किसी प्रकार के भावनात्मक या राजनीतिक दबाव में न आएं और न अपनी बद्ध धारणाओं के आधार पर कोई नैतिक स्थापना करने का प्रयास करें। मगर कई बार अदालतें इस तकाजे को भूल जाती हैं। कलकत्ता उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ से भी यही चूक हुई। यौन शोषण के एक मामले में फैसला सुनाते हुए भावनात्मक दबाव में उन्होंने कानून के बजाय नैतिक मूल्यों को सर्वोपरि मान लिया।

हाईकोर्ट की टिप्पणी को संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन बताया

मामला एक लड़की के यौन उत्पीड़न का था। उसमें न्यायालय ने आपसी रजामंदी से संबंध बनाने का मामला माना और लड़के को पाक्सो अधिनियम के तहत सजा से बरी कर दिया। इसके साथ ही लड़की को नसीहत दी कि लड़कियों को शारीरिक इच्छाओं पर काबू पाने का प्रयास करना चाहिए। लड़के को सीख दी कि उसे लड़कियों की गरिमा का सम्मान करना सीखना चाहिए। इस फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान ले लिया और कहा कि अदालत का काम उपदेश देना नहीं होता। इस फैसले से संविधान के अनुच्छेद इक्कीस के तहत नागरिकों को मिले मूल अधिकारों का हनन होता है। ऐसी टिप्पणी न केवल आपत्तिजनक, बल्कि अनावश्यक है।

गुजरात हाईकोर्ट के फैसले पर भी शीर्ष न्यायालय ने जताई थी नाराजगी

सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल सरकार से पूछा है कि क्या वह उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील करना चाहेगी। जाहिर है, इस मामले में नए सिरे से सुनवाई होगी। इस प्रकरण से एक बार फिर अदालतों के पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर काम करने को लेकर सवाल गाढ़ा हुआ है। इसके कुछ महीने पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात उच्च न्यायालय की तरफ से आए कुछ फैसलों पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि हैरानी है कि गुजरात की अदालतों से ऐसे फैसले क्यों आ रहे हैं। उच्च न्यायालयों के संवेदनशील फैसलों पर अक्सर सर्वोच्च न्यायालय नजर रखते हुए उन्हें दिशा-निर्देश देता रहता है। मगर छोटी अदालतों से जब-तब पक्षपातपूर्ण फैसलों की शिकायतें आती रहती हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट की टिप्पणी पर स्वत: संज्ञान लिया

हालांकि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश प्राय: मामलों पर गंभीरता से सुनवाई करते देखे जाते हैं, पर उनके फैसलों पर भी पक्षपात संबंधी शिकायतों की कमी नहीं है। अक्सर सत्तापक्ष या रसूखदार लोगों के पक्ष में आने वाले फैसलों को लेकर उन पर अंगुलियां उठती रहती हैं। स्वाभाविक ही इससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा प्रभावित होती है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेकर कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले पर कड़ा रुख दिखाया है, तो इससे दूसरी अदालतों को भी सबक मिलेगा।

पिछले कुछ समय से न्यायिक सक्रियता को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं, खासकर सत्ता पक्ष की ओर से। अनेक मामलों में देखा गया है कि अदालतें सुनवाई के दौरान कुछ ऐसी मौखिक टिप्पणियां करती हैं, जो मीडिया की सुर्खियां बन जाती हैं। हालांकि उन टिप्पणियों का अंतिम फैसले में कहीं कोई उल्लेख नहीं होता। जबकि अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी राय या अवलोकन टिप्पणी के रूप में दर्ज करें।

मगर यह प्रवृत्ति जैसी बनती जा रही है कि कुछ न्यायाधीश सुनवाई करते या फैसला सुनाते वक्त मौखिक रूप से कुछ ऐसी चमकदार बातें अवश्य करने का प्रयास करते देखे जाते हैं, जिन्हें मीडिया में जगह मिल सके। कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी शायद इसी मंशा से शारीरिक इच्छा पर काबू पाने वाली नसीहत दी होगी। मगर न्यायिक तकाजा उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देता कि उनके किसी बयान से कानूनी प्रावधान प्रभावित हों।