हर अधिवक्ता अदालत में इसी संकल्प और तैयारी के साथ उतरता है कि वह अपने मुवक्किल को इंसाफ दिलाएगा। वकालत के पेशे में नैतिक दायित्व भी यही होता है और इसी से वकील की साख बनती है। इसलिए हर वकील कानूनी बारीकियां और दलीलें पेश करते हुए अपने मुवक्किल के पक्ष को सही ठहराने का प्रयास करता है। अदालतें भी उन पर भरोसा करके चलती हैं। दरअसल, वकील अपने मुवक्किल और न्यायाधीश के बीच एक सेतु होता है।

इस तरह कई बार न्यायाधीशों को भी वकीलों की जिरह से कानून की बहुत सारी बारीकियों समझने में मदद मिलती है। मगर वकील जब इस विश्वास के रिश्ते का फायदा उठा कर, जानबूझ कर अदालत की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास करते हैं, तो उससे पूरी न्याय प्रक्रिया गुमराह होती और न्याय का रास्ता बाधित होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी प्रवृत्ति पर चिंता प्रकट करते हुए कहा है कि वकीलों के झूठे बयानों से हमारा विश्वास डगमगा जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने नोट किया कि पिछले तीन-चार हफ्तों में सात-आठ ऐसे मामले सामने आए, जिसमें वकीलों ने झूठे बयान देकर अपने मुवक्किल की सजा माफ करने या उसमें छूट देने की गुहार लगाई।

कानून में यह प्रावधान है कि किसी दोषी के अच्छे आचरण और खराब स्वास्थ्य आदि के मद्देनजर उसकी सजा कम या खत्म की जा सकती है। मगर उसके लिए न्यूनतम अवधि की सजा काटना जरूरी होता है। इसी तरह कुछ पारिवारिक और व्यक्तिगत कारणों से कैदियों को कुछ दिन फरलो पर बाहर रहने की इजाजत दी जा सकती है। इन्हीं प्रावधानों का लाभ उठाते हुए कुछ वकील अपने मुवक्किल को समय से पहले सलाखों से बाहर निकालने का प्रयास करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने मामलों पर लिया संज्ञान

मगर सर्वोच्च न्यायालय ने जिन मामलों का संज्ञान लिया, उनमें देखा गया कि वकीलों ने झूठे बयान और दलील देकर सजा माफी की गुहार लगाई। एक मामले में सजायाफ्ता चार कैदियों को लेकर कहा गया कि वे चौदह वर्ष की सजा काट चुके हैं। यह भी बताया गया कि चारों को हत्या के मामले में सजा दी गई थी। मगर अदालत को पता चला कि उन्होंने न केवल चौदह वर्ष की सजा पूरी नहीं की थी, बल्कि चारों को अलग-अलग मामलों में दोषी ठहराया गया था। इसी तरह एक मामले में बताया गया कि फरलो पर बाहर गए सभी कैदियों की फरलो अवधि अभी पूरी नहीं हुई है। ऐसे ही अन्य मामले देखे गए। निस्संदेह इस प्रवृत्ति से न्यायिक शुचिता प्रश्नांकित होती है।

हालांकि इस संदर्भ में यह भी चिंताजनक है कि जघन्य अपराध के दोषियों को समय से पहले सलाखों से बाहर निकालने की प्रवृत्ति पैदा कहां से हुई है। पिछले कुछ वर्षों में अनेक ऐसे प्रसंग सामने आए हैं, जिनमें राज्य सरकारों ने हत्या और बलात्कार जैसे मामलों में सजायाफ्ता लोगों की सजा माफी की सिफारिश की। कुछ अपराधियों को बार-बार फरलो दी गई। समझना मुश्किल नहीं है कि इस राजनीतिक पक्षपातपूर्ण व्यवहार का विस्तार हुआ है। फिर, वकालत के पेशे में भी नैतिकता का प्रकट ह्रास हुआ है।

निचली अदालतों में फैसलों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति भी जड़ें जमा चुकी है। इसलिए झूठे दस्तावेजों और बयानों के बल पर अधिवक्ता अगर अदालतों को गुमराह करते देखे जा रहे हैं, तो हैरानी की बात नहीं। अच्छी बात है कि शीर्ष अदालत ने इस प्रवृत्ति पर चिंता जताते हुए कुठाराघात किया। शायद आगे ऐसे झूठ और फरेब पर नकेल कसे।