इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जिन लोगों से संविधान और कानून की रक्षा, उसकी मजबूती के लिए काम करने की उम्मीद की जाती है, वही अपनी कुंठाओं का प्रदर्शन करते हुए सारे नियम-कायदे ताक पर रख दें। सर्वोच्च न्यायालय में सोमवार को प्रधान न्यायाधीश के साथ एक वकील ने जो किया, उससे यह तीखा सवाल उठा है कि ऊंची पढ़ाई-लिखाई करके वकालत का पेशा चुनने वाला एक व्यक्ति कैसे अपने दुराग्रहों की वजह से कानून और न्याय-प्रक्रिया को अपमानित कर सकता है।
गौरतलब है कि एक वकील ने कार्यवाही के बीच में ही प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई की ओर सिर्फ इसलिए जूता उछालने की कोशिश की कि उसके दिमाग पर सोशल मीडिया पर फैलाई गई कोई बात हावी हो गई थी। सरकार की ओर से हर स्तर पर सुरक्षा व्यवस्था एक मुद्दा दिखने के बावजूद अदालत के भीतर इसका ढांचा कैसा था कि एक व्यक्ति अपनी मनमानी को लेकर बेखौफ था। गनीमत बस यह रही कि आरोपी की हरकत सीमित थी, वरना वहां कुछ भी हो सकता था।
सवाल है कि जिस व्यक्ति के भीतर विवेक इस कदर अनुपस्थित हो गया हो कि वह अदालत में ही प्रधान न्यायाधीश के प्रति आक्रामक हो गया, वह इससे ज्यादा हिंसक नहीं होगा, इस बात की क्या गारंटी है। इस मसले पर सोशल मीडिया पर फैलाई गर्इं बातों के असर में इस तरह बेलगाम और आक्रामक होना इस बात का भी सूचक है कि ऐसे व्यक्ति का विवेक सामान्य तरीके से काम नहीं कर पा रहा है और वह कानून के तंत्र एवं शासन के बजाय हिंसा का रास्ता अख्तियार करना ज्यादा सही मानता है।
‘देश में अराजकता को बढ़ावा…’, जूता विवाद पर दो टूक बोलीं CJI गवई की मां
शायद यही वजह है कि प्रधान न्यायाधीश ने भले ही उदारता दिखाते हुए आरोपी व्यक्ति के प्रति नरमी बरती, लेकिन सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल ने आरोपी वकील का लाइसेंस जब्त कर उसे निलंबित कर दिया। मगर इस घटना की गंभीरता को समझते हुए ही खुद प्रधानमंत्री सहित अन्य कई बड़े नेताओं ने इसे निंदनीय बताया और चिंता जाहिर की।
हैरानी की बात है कि आरोपी ने अपनी मनमानी करने का जो कारण बताया, उससे यह साफ है कि वकील होने के बावजूद उसकी नजर में कानून या न्याय-प्रणाली की कोई अहमियत नहीं है। दरअसल, सोशल मीडिया पर प्रधान न्यायाधीश के एक बयान की मनमानी व्याख्या करके उसे फैलाया गया और उसके प्रभाव में आए लोगों ने इस पर सोचने-समझने या विवेक का उपयोग करने की जरूरत नहीं समझी।
आरोपी वकील ने जिस सनातन के कथित अपमान की बात की, क्या वह उसे आक्रामकता और हिंसा का सहारा लेने का संदेश देता है? इस समूचे मामले में सोशल मीडिया की जैसी भूमिका सामने आई, वह भी बेहद चिंताजनक और बहसतलब है। विवाद के संदर्भ में प्रधान न्यायाधीश ने साफ कहा था कि उनकी बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया, लेकिन अफसोसनाक है कि उसी मनमानी से प्रभावित होकर कुछ लोगों ने उनके खिलाफ धारणा बना ली।
आजकल सोशल मीडिया पर जिस तरह बिना कुछ सोचे-समझे किसी बात की गलत व्याख्या करने और उसके जरिए व्यापक स्तर पर धारणा बनाने का चलन देखा जा रहा है, उसके घातक नतीजे सामने आ रहे हैं। एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जिसमें विचार, बहस और विवेक के उपयोग की जगह सिमटती जा रही है और आक्रामकता तथा हिंसक मनोवृत्ति का उभार देखा जा रहा है। यह स्थिति देश के लोकतंत्र और कानून के लिहाज से बेहद चिंताजनक है।