तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक है। न्यायालय ने कहा है कि हर महिला को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी धर्म की हो। दरअसल, अभी तक मुसलिम पर्सनल कानून के तहत तलाकशुदा महिलाओं का गुजारा भत्ता तय होता था। शरीअत कानून के मुताबिक इद्दत की अवधि तक ही तलाकशुदा महिला को गुजारा भत्ता दिया जा सकता है। इद्दत यानी तीन महीने की वह अवधि, जिसमें महिला किसी दूसरे के साथ विवाह नहीं कर सकती। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 125 को सभी महिलाओं पर समान रूप से लागू करार देते हुए कहा कि इद्दत के बाद भी महिलाएं गुजारा भत्ते का दावा कर सकती हैं।
हैदराबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में फैसला दिया था कि पति अपनी तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता दे। उसी फैसले को पति ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। उसकी दलील थी कि मुसलिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के चलते, तलाकशुदा मुसलिम महिला दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता नहीं ले सकती। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि धर्मनिरपेक्ष कानून पर यह धारा आरोपित नहीं की जा सकती।
मुसलिम महिलाओं के गुजारा भत्ते संबंधी विवादों पर पहले भी अदालतें सहानुभूति पूर्वक विचार कर चुकी हैं। करीब दो वर्ष पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि तलाक के बाद महिला को पति से गुजारा भत्ता पाने का पूरा हक है। मद्रास उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कह दिया था कि शरीअत काउंसिल कोई अदालत नहीं है और न उसे कानून बनाने का हक है, तलाकशुदा औरतों को अपने पहले शौहर से गुजारा भत्ता मिलना ही चाहिए। इसी साल बंबई उच्च न्यायालय ने कहा कि तलाकशुदा महिला अगर दूसरी शादी कर लेती है, तब भी वह अपने पहले पति से गुजारा भत्ता मांग सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने उन तमाम फैसलों पर अपनी मुहर लगा दी है। मुसलिम महिलाएं तीन तलाक और गुजारे भत्ते की परंपरा के कारण सदियों से अत्याचार सहन करती आ रही हैं। तीन तलाक के विरुद्ध कानून बन जाने से उन्हें काफी राहत मिली। अब तलाक के बाद दूसरे धर्मों की महिलाओं की तरह ही गुजारा भत्ता पाने का कानून स्थापित हो जाने के बाद उन्हें बड़ी राहत मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसला के बाद जो महिलाएं गुजारा भत्ते के लिए पहल नहीं करती थीं, वे भी दावा पेश करेंगी।
भारतीय समाज में आज भी अधिकतर महिलाएं विवाह के बाद अपने पति पर निर्भर हैं। अगर किन्हीं स्थितियों में पति उन्हें छोड़ देता है, तो उनका भरण-पोषण मुश्किल हो जाता है। जिन महिलाओं के कंधों पर बच्चों को पालने, पढ़ाने-लिखाने का बोझ है, उन पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ता है। बहुत सारी तलाकशुदा मुसलिम औरतें दुबारा शादी नहीं करतीं, इसलिए केवल इद््दत तक गुजारा भत्ता पाने से उनके जीवन की मुश्किलें दूर नहीं हो पातीं। फिर, जो महिलाएं दूसरा विवाह कर भी लेती हैं, जरूरी नहीं कि उससे उनके बच्चों का उचित भरण-पोषण हो ही जाए। असल सवाल है कि किसी महिला को केवल धर्म के आधार पर दूसरी महिलाओं से अलग क्यों माना जाना चाहिए। एक नागरिक के तौर पर हर महिला को समान अधिकार मिलना चाहिए। इस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला एक कल्याणकारी राज्य के कर्तव्यों के अनुकूल और सराहनीय है।