पिछले कुछ समय से टीवी चैनलों पर किसी मुद्दे पर बहस के कार्यक्रम की प्रस्तुति के तौर-तरीके को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। ऐसे आरोप भी सामने आए कि किसी खास मुद्दे पर बहस के नाम पर लोगों के बीच उत्तेजना फैलाने की कोशिश की गई और बहसों को इस तरह प्रस्तुत किया गया, जिससे भ्रम फैला।

ऐसा कई बार सिर्फ ज्यादा दर्शकों को अपनी ओर खींच कर कमाई और मुनाफा बढ़ाने के लिए भी किया जाता है। कुछ समय बाद संबंधित कार्यक्रम से जुड़े वास्तविक तथ्य सामने आ भी जाते हैं, तो टीवी चैनल इसकी बहुत फिक्र नहीं करते। दरअसल, स्व-नियामक तंत्र होने के तमाम दावों के बावजूद अव्वल तो ऐसे कार्यक्रमों के प्रभाव की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है, फिर अगर कभी इन्हें कठघरे में खड़ा किया भी जाता है तो इसमें अधिकतम जुर्माना एक लाख रुपए ही है, जो कमाई के अनुपात में काफी कम है।

गौरतलब है कि एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को टीवी चैनलों के कामकाज को अनुशासित रखने के लिए स्थापित स्व-नियामक तंत्र के अप्रभावी होने को लेकर अपनी चिंता जाहिर की। अदालत ने साफतौर पर कहा कि सन 2008 में ही तय नियमों के तहत अब भी महज एक लाख रुपए का जुर्माना नाकाफी है और जुर्माने का आनुपातिक संबंध चैनल के विवादित कार्यक्रम से होने वाली कमाई से होना चाहिए।

शीर्ष अदालत की ओर से भारी जुर्माने की वकालत दरअसल इस हकीकत से जुड़ी हुई है कि टीवी चैनल किसी समाचार या घटना को प्रस्तुत करते हुए कई बार नाहक ही विवाद या सनसनीखेज शक्ल देकर पेश करने से नहीं हिचकते। शायद उन्हें यह पता होता है कि अगर वे इसके लिए कठघरे में खड़े हुए भी तो जुर्माने की निर्धारित अधिकतम राशि उनके लिए बहुत कम है।

कुछ साल पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत की खबरों की प्रस्तुति के दौरान टीवी चैनलों पर उन्माद पैदा करने तक के आरोप लगे थे। उसके बाद बंबई हाईकोर्ट ने टीवी चैनलों के स्व-नियमन को नाकाफी बताते हुए इसे सख्त बनाने की बात कही थी। सही है कि मीडिया के अन्य माध्यमों की तरह टीवी चैनल भी समाचारों को जनता तक पहुंचाने का एक अहम जरिया होते हैं, इसलिए संभव है कि उनके खिलाफ सख्ती की कवायद को अभिव्यक्ति को भी बाधित करने की कोशिश के तौर पर देखा जाए। लेकिन इसके महत्त्व को कायम रखने की जवाबदेही खुद टीवी चैनलों पर भी है।

सवाल है कि टीवी चैनलों की वह हद क्या हो, ताकि पत्रकारिता की गरिमा बची रहे और आम लोगों का विवेक और ज्ञान भी समृद्ध हो, उसके आधार पर वे किसी सही निष्कर्ष तक पहुंच सकें। कायदे से स्व-नियमन के जरिए टीवी चैनलों को खुद ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनकी निष्पक्षता कठघरे में न खड़ी हो।

मगर यह छिपा नहीं है कि आए दिन किसी खास समाचार की प्रस्तुति को लेकर कुछ टीवी चैनल इस स्तर तक आक्रामक दिखते हैं कि लोग मुद्दे के वास्तविक संदर्भ से दूर होकर भ्रमित हो जाते हैं। इस रुख का प्रभाव कई बार संवेदनशील स्थितियां पैदा कर देता है। हालांकि कुछ टीवी चैनलों की इस प्रकृति पर लगाम लगाने को लेकर स्व-नियामक तंत्र के साथ-साथ ठोस पहल के लिए आवाजें उठती रही हैं।

लेकिन इस दिशा में अब तक हुए प्रयासों के नतीजे आधे-अधूरे ही रहे हैं। इसलिए शीर्ष अदालत की इस राय की वजहें समझी जा सकती हैं कि जब तक नियमों को कड़ाई से लागू नहीं किया जाएगा, तब तक टीवी चैनलों के लिए उन पर अमल करने की बाध्यता नहीं रहेगी!