हर वर्ष समूचे देश में जब कड़ाके की ठंड पड़ने लगती है, तब ठिठुरते और इसकी वजह से लोगों की मौत होने की खबरें भी आती हैं। इस मसले पर सामाजिक सरोकारों के प्रति संवेदनशील लोग और संगठन चिंता जताते हैं तथा सरकार भी इससे सहमत होती है। मगर यह विचित्र है कि ठंड की मार का सामना करने वाले लोगों की समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार कोई ऐसा दीर्घकालिक उपाय करती नहीं दिखती, ताकि किसी की मौत, हादसे या मौसम की वजह से होने वाली घटना में सिमट कर न रह जाए।
कहने को होती है रैन बसेरा में सुविधा
दिल्ली और अन्य राज्यों में ऐसे लोगों की खासी संख्या है, जिनके पास रहने का कोई ठौर नहीं है और ठंड के चरम दौर में जब तापमान में काफी गिरावट हो जाती है, तब उनके लिए वक्त काटना और खुद को बीमारी और मृत्यु से बचा लेना एक बड़ी चुनौती होती है। कहने को सरकार की ओर से रैन बसेरे जैसी जो सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, उसकी सीमाओं के बीच लोग अपने स्तर पर ठंड का सामना करते हैं। इसके बावजूद कई लोगों की जान चली जाती है।
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सवाल है कि इस हकीकत के बदस्तूर कायम रहने के बीच सरकार का दायित्व क्या है? घनघोर जाड़े के दिनों में बेघर लोगों के लिए आश्रय गृहों या रैन बसेरों की उपलब्धता सुनिश्चित करना किसकी जिम्मेदारी है? गुरुवार को सर्वोच्च न्यायालय ने भी चिंता जताते हुए कहा कि बहुत जल्दी ठंड बढ़ने वाली है। इसलिए दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड यानी डीएएसआइबी यह जानकारी पेश करे कि मौजूदा समय में जो आश्रय गृह हैं, वहां कितने लोगों को ठहराया जा सकता है और कितने ऐसे लोग हैं, जिन्हें इस तरह सुविधा की जरूरत पड़ सकती है।
रैन बसेरो में साफ-सफाई का घोर अभाव
शीर्ष अदालत ने सभी राज्यों को सर्दी की मार के मद्देनजर उपलब्ध आश्रय सुविधाओं के बारे में विस्तृत रपट देने का आदेश दिया। यह छिपा तथ्य नहीं है कि हर वर्ष जाड़ा और बेघर लोगों को ध्यान में रख कर दिल्ली सरकार की ओर जो आश्रय गृह या रैन बसेरे तैयार कराए जाते हैं, वे जरूरत के मुकाबले अपर्याप्त होते हैं। फिर जहां ऐसे रैन बसेरे या आश्रय गृह होते भी हैं, वहां साफ-सफाई का घोर अभाव, असुरक्षित माहौल और अव्यवस्था की वजह से कई जरूरतमंद जाने से भी हिचकते हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि वंचित और गरीब तबकों के लिए सरकार जो व्यवस्था करने का दावा करती है, वह अगर सच नहीं होती, तो इसके लिए कौन जवाबदेह है!
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जनकल्याण के सिद्धांतों पर आधारित शासन व्यवस्था में एक लोकतांत्रिक सरकार को अपनी ओर से पहल करके कमजोर, वंचित और लाचार लोगों के लिए जरूरत पड़ने पर विशेष व्यवस्थाएं करनी चाहिए। एक रपट के मुताबिक अकेले दिल्ली और आसपास के इलाकों में करीब तीन लाख ऐसे लोग हैं, जो कड़ाके की ठंड, तपती गर्मी और बरसात के दिनों में खुले आसमान के नीचे वक्त गुजारते हैं और उसके थपेड़े सहते रहते हैं। रैन बसेरों या आश्रय गृहों के रूप में सरकार जो व्यवस्था करती है, वह इतनी अपर्याप्त होती है कि ज्यादातर लोग उस तक पहुंच भी नहीं पाते।
ठंड में लोगों की बढ़ती है परेशानी
कई बार रैन बसेरे या आश्रय गृहों में फैली अव्यवस्था, गंदगी, असुरक्षा और अराजकता का आलम भी लोगों को उससे दूर करती है। इतना तय है कि बढ़ती सर्दी और तापमान में गिरावट के साथ बेघर लोगों के सामने खुद को बचाने का संकट ज्यादा गहरा होगा। ठंड की मार से लोगों की परेशानी में बढ़ोतरी हो, इससे पहले क्या यह जरूरी नहीं है कि सरकार खुद इस मसले पर कोई व्यापक उपाय करे?